पिछले दिनों संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण को लेकर विवाद उठा। हमारे साम्यवादी मित्रों ने ‘सेकुलरिज़्म’ शब्द का अनुवाद ‘पंथनिरपेक्ष शब्द से करने पर आपत्ति उठाई। उनका कहना था कि ऐसा हिन्दू कट्टरवादियों के कहने पर किया गया है जिनके विचार से केवल हिन्दू धर्म ही धर्म है, शेष सब पंथ हैं। तथ्य यह है कि संविधान के अधिकृत हिन्दी प्रारूप में ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द ही दिया गया है। पर यह अच्छा है कि इस बहाने धर्म और धर्मनिरपेक्षता शब्द चर्चा के विषय बने हैं और आशा करनी चाहिए कि इस विषय को लेकर कुछ सार्थक संवाद हमें देखने को मिल सकेगा।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग उस अर्थ में नहीं होता रहा है जिस अर्थ में ईसाई पृष्ठभूमिवाले पश्चिम में ‘रिलिजन’ का या इस्लाम की पृष्ठभूमिवाले मध्य एशिया में ‘मज़हब’ शब्द का हुआ है। इस अंक में आप डा. पूर्णसिंह डबास का भारतीय परंपरा में धर्म शीर्षक से एक लेख पढ़ेंगे जिसमें विद्वान लेखक उन प्रमुख अर्थों की ओर ध्यान दिला रहे हैं जिनमें धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। लेख को पढने के बाद कुछ आपको स्पष्ट हो सकेंगी। उदाहरण के लिए
· जबकि इस्लाम और ईसाइयत मनुष्य और ईश्वर के संबंध को रिलिजन या मज़हब के लिए केन्द्र में रखते हैं, भारतीय परंपरा में धर्म में ईश्वर केन्द्र में नहीं है। कोई व्यक्ति ईश्वर को न मानते हुए भी धार्मिक हो सकता है जैसा कि बौद्ध और जैन मतावलंबियों के साथ होता रहा है।
· ईसाइयत और इस्लाम में धर्म का आधार एक व्यक्ति और एक पुस्तक है। ईसाइयों के अनुसार उनका धर्म वह है जो ईसामसीह ने बताया और बाइबिल में लिखा है, और मुसलमानों के अनुसार उनका मज़हब वह है जिसका ज्ञान हज़रत मुहम्मद को ख़ुदा ने दिया और जो पवित्र कुरान में लिखा गया है। इसके विपरीत भारतीय परंपरा में धर्म का कोई एक प्रवर्तक नहीं है और न उसकी सारी बातें किसी एक पुस्तक में सीमित हैं। भारत में धर्म पर अनेक विचारकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अपने-अपने विचार रखे हैं जिनमें बहुत-से सामान्य तत्त्व है, पर ब्यौरों को लेकर मतभेद भी है।
· संसार के सभी धर्म अपनी-अपनी दृष्टि से निम्नलिखित बातों के लिए प्रयास करते हैं और ये बातें हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म में काफ़ी हद तक समान रूप से पाई जाती हैं—
· मनुष्य को अपने समाज के साथ सामंजस्य के साथ मिलकर रहना है। ईसाइयत और इस्लाम में अपने-अपने संप्रदाय के लोगों के साथ मेलजोल से रहने पर अधिक बल है, पर उनका अंतिम उद्देश्य भी किसी न किसी प्रकार संसार में शांति स्थापित करना है। अवश्य ही ईसाई यह मानते हैं कि संसार में शांति तभी आएगी जब सभी लोग ईसामसीह को ईश्वर का एकमात्र पुत्र और मनुष्य जाति का एकमात्र उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार कर लेंगे। हमारे मुस्लिम मित्र अवश्य ही ऐसी ही बात अपने पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब के लिए कहते हैं।
· मनुष्य-समाज में शांति आ सके इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य का मन शांत हो, वह अपने क्षुद्र अहंकार से ऊपर उठे और एक विशाल दृष्टि अपनाकर अपना जीवन जिए। इसके लिए कुछ साधन बताए गए है जिनमें से प्रमुख हैं ईश्वर का ध्यान करना और उसकी उपासना करना, शारीरिक और वाचिक पवित्रता, दान देना, उपवास रखना, पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करना, मौन रखना, तीर्थयात्रा करना, कुछ पर्वों का मनाना, बच्चों को कुछ धार्मिक संस्कार देना, आदि। देश-काल के अनुसार इन बातों के ब्यौरों में अंतर हो सकता है पर उनका सामान्य उद्देश्य स्पष्ट है। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म, ईसाइयत और इस्लाम में उपवास के दिन और उनके कारण अलग-अलग हैं पर उनका सामान्य उद्देश्य एक है ऱ तन और मन को शुद्ध करना। इसी प्रकार विभिन्न धर्मों के तीर्थस्थान भिन्न-भिन्न होते हुए भी तीर्थयात्रा का उद्देश्य एक ही है ऱ रोज़मर्रा की घरगृहस्थी के जंजाल के कुछ समय के लिए दूर होकर आंतरिक शांति पाना और अपने से ऊपर की किसा सत्ता से जुड़कर जीवन के प्रति एक विशाल दृष्टि अपनाना।
पर यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य हैं। ईसाइयत और इस्लाम के तीर्थस्थान व्यक्तिकेंद्रित हैं। ये वे स्थान हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्मसंस्थापक से जोड़ते हैं। इसके विपरीत, हिन्दू धर्म के तीर्थस्थान मुख्यतया मनुष्य को प्रकृति की विशालता, शांति और सौन्दर्य के साथ जोड़ते हैं। गंगोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, ऋषिकेश, हरिद्वार, वाराणसी, प्रयाग, जगन्नाथ पुरी, कन्याकुमारी, द्वारका आदि तीर्थस्थान मनुष्यों के मन को कुछ समय के लिए सांसारिक जीवन से हटाकर पर्वत, नदियाँ, सरोवर और समुद्र जैसे प्रकृति के मनोरम और शांत स्थानों की ओर मोड़ते हैं। बाद में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, और गुरु नानक धार्मिक महुपुरुषों के जीवन से जुड़े स्थानों को भी तीर्थ माना जाने लगा पर प्राचीन काल से भारतीय मान्यता के अनुसार तीर्थ वह स्थान है जहाँ जाकर मनुष्य इस भवसागर को पार उतरने के लिए कुछ शक्ति प्राप्त करता है, और ऐसा करना प्रकृति के सांन्निध्य में जाकर अधिक अच्छी तरह हो सकता है। (तीर्थ और और तरना या तारना के मूल में एक ही तृ धातु है।)
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब पंथनिरपेक्षता की बात की जाती है तो उसका आशय केवल हिन्दू, इस्लाम और ईसाइयत आदि धर्मों को पंथ मानने से नहीं होता। भारत में सदा अनेक पंथ रहे हैं। हिन्दू धर्म में ही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि संप्रदाय रहे हैं और अब भी हैं। बोद्ध, जैन और सिख धर्म को पहले पंथ के रूप में ही मान्यता मिली थी। हमारे सामने ही साईं बाबा, सत्य साईं बाबा, यहाँ तक कि रामकृष्ण परमहंस, श्री अरविन्द आदि को लेकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने पंथ बना लिए हैं। जैसा कि स्वामी विवेकानंद इस अंक में अन्यत्र कह रहें है, क्योंकि मनुष्यों का स्वभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का है इसलिए उन्हें अंतिम सत्य तक पहुँचने के लिए अलग-अलग मार्गों की आवश्यकता पड़ेगी। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।
आज हिन्दुत्व शब्द भारतीय राजनीति के केन्द्र में आ गया है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय हिन्दुत्व शब्द आंदोलन के केन्द्र में नहीं था। हिन्दू महासभा जैसे राजनैतिक दल थे पर उन्हें कभी भी हिन्दू जनता का बड़ा समर्थन नहीं मिला। इसका मुख्य कारण यह था स्वतंत्रता का संग्राम जिन आदर्शों को लेकर लड़ा जा रहा था वे सभी हिन्दू आदर्शों से मेल खाते थे। यह सही है कि हिन्दुओं के मन में शताब्दियों की गुलामी से अपने आपको मुक्त कर देश को स्वतंत्र करने की प्रबल इच्छा थी, पर हिन्दुओं ने कभी यह नहीं चाहा कि भारत के सभी लोग हिन्दू धर्म मानने लगें या फिर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता मिले।
पर स्वतंत्रता के बाद गणतंत्र और वोटबैंक की राजनीति होने लगी है, इस कारण हिन्दू भी अपने आपको मुसलमान या ईसाइयों से अलग कर एक राजनैतिक समाज के रूप में देखने लगा है। वर्तमान राजनेतिक परिदृश्य को देखते हुए इस प्रवृत्ति से निकट भविष्य में छुटकारा पाना कठिन है। जब तक कुछ भारतीयों के चिन्तन में गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय आदि की मूल समस्याओँ के स्थान पर धर्म केन्द्र में रहेगा तब तक आम लोगों की धार्मिक भावनाओं को उभाड़ा जाता रहेगा।
पिछले दिनों विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने बड़े दुःख के साथ एक दैनिक में लिखा,
संसार में टकराव और अपराध बढ़ रहे हैं और मनुष्यों के मन और हृदय में एकता लाना दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है। . . . अब जबकि सामाजिक कार्यकर्ता, धार्मिक नेता और आध्यात्मिक मार्गदर्शकों के प्रयत्नों से कुछ आशा की किरण दिखाई देने लगी थी, केन्द्रीय सरकार का 200 मुस्लिम बहुसंख्यावाले गाँवों को चुनकर उन्हें विकास में प्राथमिकता देने का कथित निर्णय सेकुलर दृष्टिवाले सामाजिक और आध्यात्मिक कार्यकर्ताओं के काम को बहुत कठिन बना देगा। यह नहीं समझ में आता कि इस नीति के बनानेवालों ने इसके दुष्परिणामों के बारे में क्यों नहीं सोचा। यह नीति गांधी जी के सिद्धांतों को दफ़न करने जैसी होगी और इससे देश में सांप्रदायिक गुटों के बनने को बढ़ावा मिलेगा। (इंडियन एक्सप्रेस 12 मार्च 2007)
श्री श्री रविशंकर आध्यात्मिक नेता है और उनके शिष्य संसार के अधिकतर देशों में हैं। इन शिष्यों में पाकिस्तानसहित मुस्लिम देशों के लोग भी शामिल हैं। रविशंकर जी को किसी भी अर्थ में कट्टर हिन्दुत्ववादी नहीं कहा जा सकता यद्यपि जो शिक्षा वह देते हैं वह पूरी तरह हिन्दू धर्म की परंपरा पर आधारित है। क्या केंद्रीय सरकार के नेता उनकी पीड़ा को समझेंगेय़
पीछे समाचार आया कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेताओं ने स्वामी रामदेव के योग के एक कार्यक्रम का विरोध किया जबकि कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार के तत्त्वावधान में निर्मित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में योग प्रमुख स्थान दिया गया था और वर्तमान सरकार की ओर निर्मित एक समिति ने योग को विद्यालयों में अनिवार्य रूप से स्थान देने की संस्तुति की है। स्वामी रामदेव की शिक्षाएँ पूरी तरह सेकुलर हैं क्यों कि वे किसी भी व्यक्ति के द्वारा बिना किसी विचारधारा से अपने आपको बाँधे स्वीकार की जा सकती हैं। सभी धर्मों की ऐसी बातों के जो सर्वचनहितकारी हों खुले दिल से स्वीकार किया जाना चाहिए। केवल इसी प्रकार हम धीरे-धीरे एक विश्वधर्म की ओर बढ़ सकेंगे जो हमें सबी संकीर्णताओँ से ऊपर उठाकर मनुष्य को मनुष्य के साथ और मनुष्य को परमात्मा के साथ जोड़ने में सहायक हो सकेगा।
धर्म शब्द को भारतीय चिन्तन से अलग नहीं किया जा सकता । न केवल इस लिए कि यह शब्द इतना प्राचीन और व्यापक होने के कारण भारतीय चेतना में बहुत गहराई से प्रवेश कर गया है अपितु इसलिए भी कि संसार की किसी भाषा में इसका अनुवाद नहीं किया जा सकता। धर्म शब्द को धर्म के रूप में ही रखते हुए हमें धर्म वास्तव में क्या है इसे समझने का प्रयास करना चाहिए।
Thursday, April 12, 2007
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