Thursday, April 12, 2007
आर्यसमाज को बदलना होगा।
अनिल विद्यालंकार
सभी धर्मों को पुनर्चिंतन की आवश्यकता है। आज के वैज्ञानिक विचारों के युग में केवल विश्वासों, मान्यताओं और सिद्धांतो के सहारे कोई धर्म जीवित नहीं रह सकता। संसार के सभी धर्मों के प्रति उनके अनुयायियों की रुचि घट रही है। आर्यसमाज भी इसका अपवाद नहीं है। आज आर्यसमाज के सत्संगों में युवा लोगों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। स्पष्ट ही उन्हें आर्यसमाज में अपने काम की कोई बात दिखाई नहीं देती। यदि धर्म का उद्देश्य जीवन का मार्गदर्शन करना है तो आर्यसमाज अपने इस उद्देश्य में बुरी तरह असफल हो रहा है।
आर्यसमाज की स्थापना को 125 वर्ष हो चुके हैं। बीसवीं शताब्दी में भारत में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांति लाने में आर्यसमाज का सबसे अधिक योगदान था। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना भारत के ही नहीं संसार के उपकार के लिए की थी। आर्यसमाज के लिए निर्धारित नियमों के छठे नियम में उन्होंने कहा, ‘‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।”देखा जाए तो आर्यसमाज के लिए निर्धारित इन कार्यों के सभी पक्षों की हम लोग उपेक्षा करते रहे हैं। शारीरिक पक्ष को ही लिया जाए तो शायद ही आर्यसमाज का केन्द्र ऐसा हो जहाँ योगासनों की शिक्षा नियमित रूप से दी जाती हो। पिछली कुछ दशाब्दियों से पूरे विश्व में योगासन सीखने-सिखाने के बारे में अभूतपूर्व उत्साह है। पर आर्यसमाज इस में कहीं नहीं है। जबकि आर्यसमाज को योग की शिक्षा में सबसे आगे होना चाहिए था।
आर्यसमाज के उद्देश्यों में वर्णित आत्मिक उद्धार के नाम पर आर्यसमाज में केवल शाब्दिक व्याख्यानों की परम्परा रही है। पर आत्मा का उद्धार शब्दों से नहीं होता। आत्मिक प्रगति के लिए ध्यान ही एक मात्र उपाय है। पूरे विश्व में योग के साथ-साथ ध्यान के बारे में भी रुचि बढ़ रही है। ध्यान की शिक्षा देने के लिए अनेक गुरुओं ने अपने अपने सम्प्रदाय स्थापित किए हैं जिनमें से कुछ अच्छा कार्य कर रहे हैं। पर आर्यसमाज इसमें कहीं नहीं है। आर्यसमाज का कोई सत्संग ऐसा नहीं होता जहाँ ध्यान का कार्यक्रम होता हो और न ही किसी आर्यसमाज में ध्यान की शिक्षा देने की व्यवस्था है।
यदि सामाजिक उन्नति को लें, तो निस्संदेह आर्यसमाज ने सामाजिक जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बाल-विवाह का रोकना, कन्याओं की शिक्षा और अंतर्जातीय विवाह आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ आर्यसमाज अग्रणी रहा है, पर जाति-व्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित बनाने में आर्य समाज बुरी तरह असफल रहा है। आज की राजनीति जन्म-गत जाति से बुरी तरह प्रभावित है और हिन्दू समाज खंडों, उप-खंडों में बँटता जा रहा है, पर आर्य समाज इस बारे में सर्वथा मौन है।
आर्यसमाज को बदलना होगामहर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में कहा “वेद का पढ़ना-पढ़ाना सब आर्यों का परम धर्म है।”पर शायद ही कोई आर्यसमाज ऐसा हो जहाँ वेदों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो। वेदों के अध्ययन के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत की शिक्षा के लिए भी आर्यसमाज कुछ नहीं कर रहा।
आर्यसमाज के चौथे नियम में महर्षि दयानन्द ने कहा “सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वथा उद्यत रहना चाहिए।” महर्षि दयानन्द नहीं चाहते थे कि लोग उनकी बातों को अन्धभक्ति के साथ स्वीकार करें। इसलिए उन्होंने मनुष्य की तर्कक्षमता पर बहुत अधिक बल दिया। पर आज हम महर्षि दयानन्द के शिष्य नहीं, तोते बनकर रह गए। हम उनके शब्दों को बहुत बार बिना विचार किए दोहराते रहते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि महर्षि दयानन्द ने अपने विचारों को “स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश”(मैं क्या मानता हूँ और क्या नहीं मानता) के रूप में ही सामने रखा था। वे जिन बातों को मानते थे उन्हें उन्होंने स्पष्टतः और साहस के साथ सामने रखा। पर उन्होंने यह दावा कभी नहीं किया जो वे कह रहे हैं वही अन्तिम सत्य है, अन्यथा वे आर्यसमाज के नियमों में यह कभी नहीं कहते कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। वे आसानी से कह सकते थे कि जो वे कह रहे हैं वही सत्य है और सभी लोगों को उसे ही मानना चाहिए।
हमें महर्षि दयानन्द से प्रेरणा लेकर अपनी सभी मान्यताओं पर खुले दिमाग से विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि हम यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान की सभी बातें वेदों में विद्यमान हैं, तो हमें उन्हें प्रमाण और प्रयोगों के साथ विश्व के सामने रखना चाहिए। और यदि पिछले सवा सौ वर्षों में हम ऐसा करने में असफल रहे हैं तो हमें नम्रता के साथ अपने दृष्टिकोण पर पुनः विचार करना चाहिए।
आज का विज्ञान कहता है कि मनुष्य का विकास पशुपक्षियों के बाद हुआ है और इसके लिए वह अकाट्य प्रमाण भी देता है। विज्ञान की खोज के अनुसार यह तय है कि आज से बीस-तीस लाख वर्ष पूर्व मनुष्य पृथ्वी पर नहीं था, जबकि अनेक प्रकार के पशु-पक्षी यहाँ विद्यमान थे जिनमें से डाइनासारस आदि कुछ पशु लुप्त हो चुके हैं। अब या तो हम अकाट्य प्रमाणों के द्वारा सिद्ध करें कि मनुष्य सृष्टि के प्रारम्भ से इस पृथ्वी पर रहता आया है या फिर मनुष्य के सम्बन्ध में अपनी मान्यताओं में परिवर्तन के लिए तैयार हों।
महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में कहा, “जो सब सत्यविद्या और पदार्थविद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।” पर अगले ही नियम में महर्षि दयानन्द ने कहा, “वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है।”यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इस नियम में महर्षि दयानन्द पदार्थविद्या को नहीं गिना रहे हैं। यह ठीक है कि उन्होंने वेदों में विज्ञान होने के सम्बन्ध में कुछ संकेत किए हैं पर मैं नहीं समझता कि वे इस पर बहुत अधिक बल देना चाहते थे। हमें वेदों में पदार्थविज्ञान होने के संबंध में या तो अकाट्य प्रमाणों के द्वारा इस बात को पुष्ट कर संसार के सामने रखना चाहिए या फिर इस प्रश्न पर सदा के लिए विराम लगा देना चाहिए।
आर्यसमाज को बदलना होगादूसरी ओर यह बात बिल्कुल सच है कि सत्यविद्या का जो ज्ञान वेदों में है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। यह ज्ञान आत्मा और परमात्मा के ही बारे में नहीं है अपितु सृष्टि के अन्तिम रहस्य के बारे में भी है। वेद में अनेक ऐसे विषयों का ज्ञान है जो हमारे आधुनिक जीवन के लिए न केवल उपयोगी है अपितु सर्वथा आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर केवल भाषा से संबंधित ऋग्वेद के इस मंत्र को ही देखें--
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।
(ऋग्वेद 1-164-45 )
(भाषा के नियमित चार चरण हैं। उन सभी चरणों को केवल विद्वान ब्राह्मण जानते हैं। इनमें से तीन चरण मनुष्य के हृदय की गुफा में छिपे हुए हैं। सभी मनुष्य केवल चौथे चरण की भाषा बोलते हैं।)
भाषा के बारे में यह बहुत ही गहरी दृष्टि है जो संसार में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। आइए इस पर संक्षेप में विचार करें।
भाषा की चौथी अवस्था उच्चरित भाषा की है जिसे सब सुनते-बोलते हैं और जिसके आधार पर समाज का व्यवहार चलता है। भाषा के इस चरण को “वैखरी” कहते हैं। वैखरी की अवस्था में मनुष्य जानबूझकर और सोचसमझकर अपने शब्द नहीं बोलता। अधिकतर भाषा उसके मुख से अपने आप निकलती है।
भाषा की तीसरी अवस्था मानसिक भाषा की है जो हर व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में विचारों के रूप में स्पन्दित होती है। चिन्तन की भाषा का यह रूप बाहर नहीं आता। पर सब लोग इसे अपने अन्दर अनुभव कर सकते हैं। भाषा के इस चरण को ‘‘मध्यमा’’ कहते हैं। इस मध्यमा के माध्यम में मनुष्य निरंतर कुछ न कुछ सोचता रहता है। पर अनियंत्रित चिन्तन से समस्याएँ सुलझने के बजाय उलझती जाती हैं। बहुत से मनुष्य अपने अनियंत्रित चिंतन से परेशान होकर चिंतन के ऊपर उठना चाहते हैं और उनकी प्रवृत्ति ध्यान की ओर होती है।
भाषा की दूसरी अवस्था ध्यान में प्रकट होती हैं जहाँ कभी मनुष्य के मन में शब्द उत्पन्न होते हैं और कभी वह शब्दातीत चेतना में रहता है। इस अवस्था पर आकर मनुष्य को भाषा के सच्चे स्वरूप का आभास मिलने लगता है। भाषा की इस अवस्था को “पश्यन्ती” कहते हैं।
आर्यसमाज को बदलना होगाभाषा की पहली अवस्था ‘‘परा’’ कहलाती है जो वास्तव में परमात्मा की ही एक शक्ति है। इस अवस्था पर जाकर साधक की चेतना परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है और वह अपने सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार करता है। यह जीवन का चरम लक्ष्य है।
ऋग्वेद के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रतिक्षण परमात्मा या ब्रह्म से आता है। मनुष्य को लगता है कि वह भाषा का प्रयोग कर रहा है, पर वास्तव में भाषा चाहे-अनचाहे उसके मन-मस्तिष्क में खुदबुदा रही होती है। इस प्रक्रिया में मनुष्य का वास्तव में जन्म होता है। मनुते इति मनुष्यऱ मनुष्य सोचता है, इसलिए वह मनुष्य है। पर मनुष्य को सदा सोचते रहने की लाचारी से ऊपर उठना है। वेद के अनुसार मनुष्य भाषा को नहीं बनाता, भाषा मनुष्य को बनाती है। यदि हम वेद में वर्णित ‘वाक्’ के रहस्य को ही समझ लें तो हमें स्वयं अपने विषय में, परमात्मा के विषय में और सृष्टि के विषय में सभी रहस्यों का ज्ञान हो जायेगा। इसके लिए गहरी आध्यात्मिक साधना की आवश्यकता है।
वैदिक काल के बाद साधना की जिस लंबी परंपरा का विकास हुआ उसका प्रमुख उद्देश्य मनुष्य को अपने मन की सीमाओं से ऊपर उठने में सहायता देना रहा है। पतंजलि ने योग की परिभाषा में ही कहा, योगः चित्तवृत्तिनिरोधः – मन की हलचल को रोकने का नाम योग है। मन की इस हलचल में भाषा भी आती है। सर्वथा शांत मन में अनावश्यक रूप से भाषा नहीं पैदा होती। शांत मन की उस अवस्था में ही मनुष्य को परमात्मा के दर्शन होते है। वेद के आधार पर परमात्मा की परिभाषा भी दी जा सकती है –भाषातीत चैतन्य परमात्मा है। परमात्मा की यह परिभाषा सैद्धांतिक कथनमात्र नहीं है, यह सर्वथा प्रयोगसाध्य है। जो भी व्यक्ति अपने मन को इतना शांत कर लेगा कि उसमें कोई अनावश्यक शब्द उत्पन्न न हो, उसे अवश्य ही परमात्मा मिल जाएगा। साथ ही यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि परमात्मा को पाने का और कोई उपाय नहीं है।
यदि हम परमात्मा की इस वेद-आधारित परिभाषा पर ही ध्यान दें तो न केवल हम अपने जीवन में सुख-शांति ला सकते हैं अपितु देश में और संसार में धर्म के नाम पर जो खूनखराबा हो रहा है उसे भी बंद करवाकर विश्वभर में शांति सुरक्षा और विकास के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
वेद में आधुनिक जीवन के लिए सर्वथा उपयोगी विचारों में से केवल एक के विषय में यहाँ संकेत किया गया है। वैदिक ऋषियों ने जीवन के विषय में जो गहरी दृष्टि दी उसे अपनाए बिना मनुष्यजाति का उद्धार नहीं हो सकता। इसीलिए उन ऋषियों ने ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’, अर्थात् हम हर मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाएँ, संदेश दिया था। आज आर्यसमाज को उस संदेश पर फिर से ध्य़ान देने की आवश्यकता है। इसके लिए सामूहिक जागरूकता लाकर संगठित प्रयास करना होगा।
आर्यसमाज को बदलना होगाएक और बात की ओर सभी प्रबुद्ध भारतीयों का, विशेषकर आर्यसमाजियों का ध्यान जाना चाहिए। संसारभर में मनुष्य के जीवन के सच्चे स्वरूप और उसके अनुसार जीवन जीने के सही मार्ग की तलाश जारी है। असंख्य लोग मानसिक शांति की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। दूसरी ओर आज के उच्चतम वैज्ञानिक भी सृष्टि के अंतिम रहस्य को खोज नहीं पा रहे हैं। वेद कहता है कि सारा विश्व एक ही चैतन्य की अभिव्यक्ति है (पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ऱ यहाँ जो कुछ है, जो अब तक हुआ है और जो आगे होगा वह सब पुरुष ऱ चैतन्यऱ ही है। ऋग्वेद 10-90-2)। ऊपर से देखने पर यह वेदान्त का कथन प्रतीत होता है। पर यह वेद का वाक्य है, और इसे गहराई से समझने की आवश्यकता है। भौतिकी में नोबेल पुरस्कारप्राप्त एर्विन श्रडंगर ने इस कथन की पुष्टि की है। उनके अनुसार सारा भौतिक विश्व भी वास्तव में एक ही चैतन्य तत्त्व की अभिव्यक्ति है। चेतना का प्रश्न आज केवल शांति की खोज में भटकते लोगों के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, उच्चतम वैज्ञानिकों के लिए भी इसका महत्त्व है। पर चेतना का प्रश्न प्रायः ही धार्मिक प्रश्न मान लिया जाता है। अब धर्म और विज्ञान के समन्वय का मार्ग खोजने का समय आ गया है। यह कार्य केवल भारतीय चिन्तन के आधार पर ही संभव हो सकता है।
पर आज भारतीय चिन्तन भी अनेक खेमों में बँटा हुआ है जिनमें आर्यसमाज का खेमा भी एक है। आवश्यकता इस बात की है कि वेदों से लेकर अबतक चेतना के विषय में जो भी चिन्तन भारत में हुआ है उस पर सामूहिक और व्यवस्थित विचार हो। वैदिक धर्म मानने का धर्म न होकर जानने का धर्म है। स्वामी दयानन्द ने कहा था कि हमें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिए। उन्होंने कभी नया पंथ चलाने का दावा नहीं किया। पर आज आर्यसमाज एक दयानंदपंथ बनकर रह गया है। आर्यसमाजी विद्वान महर्षि दयानंद की बातों को प्रायः बिना समझे तोते की तरह दुहराते रहते हैं, परिणामतः आर्यसमाज में चिन्तन का अभाव होता जा रहा है और भारतीय जनता की रुचि आर्यसमाज में दिनों दिन घटती जा रही है।
आज आवश्यकता एक ‘विश्वधर्म’ की है जो संसार के सभी लोगों को स्वीकार्य हो और जो उनका का सही मार्गदर्शन कर सके। यह तय है कि संसार में इस समय विद्यमान कोई भी धर्म संसार के सभी लोगों का धर्म नहीं बन सकता। आर्यसमाज कितना ही प्रयास करले, संसार के सभी लोग कभी आर्यसमाजी बन जाएँगे इसकी संभावना नहीं के बराबर है। पर यदि हम समूचे भारतीय चिन्तन पर समग्रता से विचार करें तो हमें वह दृष्टि अवश्य मिल सकती है जिसकी संसार को आवश्यकता है। इसके लिए हमें भारत में विकसित सभी दर्शनों ऱ सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, और बौद्ध और जैन दर्शनों पर, अपने अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर, सामूहिक विचार करना होगा। साथ ही आज की नवीनतम वैज्ञानिक खोजों को पर भी विचार कर धर्म और विज्ञान के संबंध में एक समन्वित दृष्टि का विकास करना होगा जो विश्वभर में मान्य हो। आर्यसमाज इस दिशा में पहल कर सकता है।
आर्यसमाज को बदलना होगासौभाग्य से आज प्रत्येक आर्यसमाज के पास उसका अपना भवन है जहाँ अनेक प्रकार के उपयोगी कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। पर प्रायः आर्यसमाज मंदिरों का उपयोग प्रायः केवल रविवार के दिन दो घंटे के लिए होता है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक आर्यसमाज को एक शिक्षाकेन्द्र बनाया जाए जहाँ महर्षि दयानन्द के अनुसार शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए सार्थक प्रयास हो। इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं:
1. प्रत्येक आर्यसमाज को योग की शिक्षा का केन्द्र बनाया जाए जहाँ नियमित रूप से योग के सभी पक्षों की शिक्षा दी जाए।
2. ध्यान योग का अभिन्न अंग है। प्रत्येक आर्यसमाज में ध्यान की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए और ध्यान को आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग का अभिन्न अंन्न अंग है। प्रत्येक आर्य समाज में ध्यान की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए और ध्यान को आर्य समाज के साप्ताहिक सत्ग बनाना चाहिए। वास्तव में ध्यान के बिना वेद के मंत्रों का अर्थ भी सही रूप से समझ में नहीं आ सकता। जो लोग केवल शब्द-विश्लेषण के आधार पर वेदों की व्याख्या करते हैं उनके चिन्तन में गहराई नहीं आ पाती। वेद स्वयं कहता है कि परमात्मा को जाने बिना मंत्रों को नहीं समझा जा सकता (यस्तन् न वेद किं ऋचा करिष्यति ऱ जो परमात्मा को नही जानता उसके लिए मंत्र क्या करेंगे? ऋग्वेद 1-164-39)
3. सामाजिक उन्नति के लिए प्रत्येक आर्यसमाज में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं पर खुली चर्चा होनी चाहिए। आजकल हिन्दुत्व शब्द भारतीय राजनीति के केन्द्र में आ गया है। आर्यसमाज का इस बारे में क्या दृष्टिकोण है? क्या जन्म से जाति मानने वाले लोग शिक्षित हिन्दू कहे जा सकते हैं? आजकल जाति के नाम पर जो घृणित राजनीति हो रही है उसके बारे में आर्यसमाज का क्या दृष्टिकोण है?
4. आर्यसमाज आज भी सामाजिक कार्य करता है पर वह अधिकतर दैवी विपदाओं के अवसर तक ही सीमित रहता है। कुछ आर्यसमाजों में निश्शुल्क औषधालय चलाने जैसे सामाजिक सेवा के कार्य किये जा रहे हैं जो प्रशंसनीय हैं। पर सभी आर्यसमाजों को सामाजिक सेवा को अपने कार्यक्रम का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। तभी महर्ष दयानंद का आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य पूरा होगा। यदि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य अपनी आय का औऱ अपने समय का एक प्रतिशत (सप्ताह में दो घंटे) सामाजिक कार्य के लिए दे तो आर्यसमाज की ओर से सामाजिक उत्थान के लिए बहुत काम किया जा सकता है।
5. प्रत्येक आर्यसमाज को एक जीवंत शिक्षा-केन्द्र बनाना चाहिए। कुछ आर्य समाजों के भवनों में विद्यालय चल रहे हैं पर वह एक रोटीन कार्य बन गया है। प्रत्येक आर्यसमाज में संस्कृत, कला, दस्तकारी, संगीत, स्वास्थ्य-विज्ञान आदि के सीखने की व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें समाज के सभी वर्गों के लोग भाग ले सकें। आर्यसमाज के अपने भवनों में इस प्रकार के कार्यक्रम चलाना कठिन नहीं है। वाई.एम.सी.ए. आदि संस्थाओं ने अपने इसी प्रकार के कार्यों से समाज में स्थान बना लिया है। आज प्रत्येक नगर और कस्बे में बड़ी संख्या में अवकाश-प्राप्त लोग हैं जो सामाजिक कार्य करना चाहते हैं पर उन्हें समझ नहीं आता कि वे क्या करें और कहाँ करें। आर्यसमाज उनकी सेवाओं से लाभ उठाकर सामाजिक जीवन में गति ला सकता है।
6.
आर्यसमाज को बदलना होगादेश में और संसार के अन्य देशों में धर्म के नाम पर होने वाले झगड़ों और खूनखराबे को कैसे रोका जा सकता हैय़ क्या मनुष्य जाति एक विश्वधर्म की ओर बढ़ सकती हैय़ यह ऐसा विषय है जिस पर आर्यसमाज ही खुला चिन्तन प्रारम्भ कर सकता है।
वर्तमान समय में सभी धर्मों को बदलना है, कुछ को कम कुछ को ज़्यादा। शायद आर्यसमाज को सबसे कम बदलना है, पर बदलना अवश्य है।
यदि हम आर्यसमाज के अन्दर बदलाव के लिए चिन्तन और प्रयास नहीं करते तो हम अपने आपको सही अर्थों में आर्यसमाजी नहीं कह सकते। ▀
संपर्क सूत्र--संधान, जे-56 साकेत, नई दिल्ली 110017
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