Thursday, April 12, 2007

प्रश्न-चर्चा

(पत्रिका के इस भाग में हम उन प्रश्नों को आपके सामने रख रहे हैं जो समय-समय पर हमारे सामने आते रहे हैं। ये प्रश्न संसार के अनेक देशों में उठाए गए हैं और इनका संबंध संसार के सभी मनुष्यों से है। आप भी अपने प्रश्न हमें भेज सकते हैं, साथ भी प्रश्नों के संबंध में अपनी टिप्पणी भी कर सकते हैं।
हम ध्यान दिलाएँ कि इन प्रश्नों का संबंध अधिकतर मनुष्य के आंतरिक जीवन से है जहाँ शब्दों का निश्चित अर्थ नहीं होता। इसलिए आंतरिक जीवन के संबंध में न तो प्रश्नों का स्वरूप निश्चित होता है और न उनके निश्चित उत्तर हो सकते हैं। आत्मा, परमात्मा, धर्म, सुख, शांति, पुण्य, पाप, मुक्ति, यहाँ तक कि शिक्षा आदि शब्दों का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। अनिश्चित अर्थवाले प्रश्नों पर केवल टिप्पणी ही की जा सकती है उनके निश्चित उत्तर देना असंभव है। पर यह चर्चा आवश्यक है ताकि हम सभी अपनी समस्याओँ के बारे में सोचें और उनके बारे में स्वाध्याय, चिन्तन और विचार-विनिमय करें। प्राचीन उक्ति है—वादे वादे जायते तत्त्वबोधः—संवाद करते रहने से तत्त्व का ज्ञान हो सकता है। आप भी इस चर्चा में भाग लें।)
प्रश्न—मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या हैय़
टिप्पणी—यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह अपने जीवन में कहाँ तक पहुँचना चाहता है। कुछ मनुष्य अधिक से अधिक धन कमाने को ही अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं तो कुछ अधिक से अधिक यश पाने को। कुछ को शांति की तलाश रहती है तो कुछ को ज्ञान की। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि मनुष्य जो कुछ भी करता है उससे सुख पाना चाहता है। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य के जीवन का चरम लक्ष्य वह होगा जहाँ उसे ऐसे सुख की प्राप्ति हो जिसके बाद पाने को कुछ शेष न रहे। गीता (6-22) कहती है कि योग की अवस्था में मनुष्य को ऐसे सुख की प्राप्ति होती है। यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः—जिसे पाकर मनुष्य उससे बड़े किसी सुख को न चाहे (वह योग की अवस्था है)। पिछले अंक में हमने देखा कि एल्डस हक्सले के अनुसार ‘‘इस पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का केवल एक ही लक्ष्य है कि वह अपनी शाश्वत आत्मा के साथ अपने को एकाकार करे ओर इस सृष्टि के दिव्य आधार के साथ अपनी एकात्मता को पहचाने’’। ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘‘एक ही लक्ष्य’’। हक्सले के अनुसार मनुष्य जीवन में भले ही कुछ भी हासिल कर ले, जब तक वह अपनी शाश्वत आत्मा को जानकर उसके साथ अपने को एकाकार नहीं कर लेता तब तक उसे अपने जीवन में अपूर्णता का अनुभव होता रहेगा। प्रसिद्ध बीटल गायक जॉर्ज हैरिसन ने कहा था, ‘‘जीवन में सबकुछ को बाद के लिए छोड़ा जा सकता है, पर परमात्मा की तलाश को नहीं। (Everything else can wait but the search for God cannot wait.) और जॉर्ज हैरिसन धन और नाम की दृष्टि से अपने समय के सबसे सफल व्यक्तियों में से एक था।
प्र.—क्या परमात्मा को पाना सभी मनुष्यों के लिए वास्तव में आवश्यक हैय़
टि.--नहीं, सबके लिए आवश्यक नहीं है, पर उनके लिए अवश्य आवश्यक है जो अपने जीवन में चरम शांति और चरम सुख को पाना चाहते हैं।
प्र.--पर संसार के लाखों मनुष्य बिना परमात्मा को पाए सुखी जीवन बिता रहे हैं।
टि.—यह केवल ऊपर से प्रतीत होता है। आप उन मनुष्यों के अंदर जाकर देखेंगे तो प्रत्येक के अंदर वे ही चिन्ताएँ, भय और आशंकाएँ आपको मिलेंगी। जब तक मनुष्य अपने सुख और शांति को अपने अंदर नहीं पा लेता तब तक वह अशांति के सागर में ही थपेड़े खाता रहेगा। और यह स्थायी शांति और सुख अपने अंदर स्थित परमात्मा को पाकर ही मिल सकता है।
प्र. इसका तात्पर्य हुआ कि नास्तिक लोगों के लिए चरम शांति और चरम सुख पाने की कोई संभावना नहीं है।
टि. ऐसा नहीं है। मनुष्य को अपनी शांति और सुख के लिए अपने अंदर जाना है। वहाँ विद्यमान शांत चैतन्य में उसका अपना स्वरूप है। पर वहाँ जाने के लिए उसे निरंतर विचारों में डूबे रहनेवाले अपने मन को शांत करना है। यह काम बिना परमात्मा को माने भी हो सकता है। बहुत बार परमात्मा को माननेवाले लोग परमात्मा के बारे में बेकार बहस करके अपने मन को और अशांत कर लेते हैं। भारतीय परंपरा का ईश्वर मानने का विषय नहीं अपितु जानने का विषय है। जब आप परमात्मा को जान लेते हैं तो आपको पता लग जाता है कि परमात्मा के बारे शब्दों में की गई सारी बहस व्यर्थ है। अपने अंदर के शांत सत्य को पाने के बाद आप उसे कुछ भी नाम दे सकते हैं। यदि आपने वास्तव में अंतिम सत्य को अपने अंदर पा लिया है तो आप उसे किस नाम से पुकारते हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
प्र. मैं परमात्मा को पाना चाहता हूँ। इसके लिए क्या करूँय़
टि. परमात्मा को पाने का केवल एक उपाय है—अपने मन को इतना शांत करना कि उसमें कोई शब्द और कोई बिंब न पैदा हों। भारतीय परंपरा में परमात्मा की बहुत ही स्पष्ट और सरल परिभाषा है—भाषातीत चैतन्य परमात्मा है। जब आपकी चेतना में कोई शब्द नहीं उठ रहा होता उस समय आप परमात्मा के साथ एकाकार होते हैं।
प्र. और शेष समयय़
टि. शेष समय भी आप परमात्मा के साथ ही एकरूप हैं, पर आपके विचार आपके अंदर आपके अलग होने की भ्रांति पैदा करते रहते हैं। छोटे शिशुओं की चेतना इसलिए परमात्मा के साथ एकाकार होती है। पर धीरे-धीरे उनके माता-पिता और उनका समाज और उनका धर्म उन्हें बताने लगता है कि वे कौन हैं। अलगाव के ये संस्कार शिक्षा और राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक जीवन में दिनोंदिन और गहरे होते जाते हैं। आप अपने बारे में वह मानने लगते हैं जो आपको औरों के द्वारा आपके बारे में आपके बताया गया है। औरों की राय से अलग आप अपने आप वास्तव में क्या हैं इसके बारे में सोचने-जानने का अवसर ही नहीं मिलता।
प्र. पर मैं अपने बारे में कुछ तो जानता हूँ कि मैं क्या हूँ।
टि. आप क्या हैं, इस प्रश्न का उत्तर आप क्या कह कर देंगेय़ आप अपने बारे वह कहेंगे जो उस समय आपके मन में उठनेवाले विचार आपको आपके बारे में बताएँगे। उदाहरण के लिए किसी के पूछने पर कि आप कौन हैं, आप कह सकते हैं—मेरा नाम यह है, मैं इस स्थान पर रहता हूँ, मेरा धर्म यह है, मैंने इस-इस तरह की शिक्षा प्राप्त की है और इस-इस तरह के काम किए हैं, यह मेरी पत्नी और ये मेरे बच्चे हैं, वे लोग मेरे मित्र हैं और वे दूसरे लोग मेरे विरोधी, आदि-आदि। आपने मैं क्या हूँ, इस बात का उत्तर किस आधार पर दियाय़ केवल उन्हीं विचारों के आधार पर ही तो जो आपके मनमें उस समय उठे। पर आपने अपने बारे में जितनी भी बातें बताईं उनमें हर एक के प्रति आप हर समय सचेत नहीं होते। एक डाक्टर केवल तभी डाक्टर होता है जब वह रोगियों को देख रहा होता है, अन्य किसी समय वह खिलाड़ी, गायक, पिता या स्वयं रोगी भी हो सकता है। वह निश्चित रूप से स्वयं भी नहीं जानता कि वह वास्तव में क्या है। आप बिलकुल अभी स्वयं अपने बारे में बताने का प्रयास कीजिए कि आप कौन या क्या हैं, और आपको तुरंत यह स्पष्ट हो जाएगा कि आप अपने बारे में वहीं कहते हैं जो आपके विचार किसी समय आपको आपके बारे में बताते हैं। विचारों के परे आप क्या हैं, यह जानना विचारों को पूरी तरह शांत करके ही हो सकता है।
प्र. पर मैं अपने सच्चे स्वरूप के बारे में जानना चाहता हूँ।
टि. पतंजलि के योग-दर्शन के प्रारंभ के सूत्र हैं—योगः चित्तवृत्ति निरोधः (चित्त की हलचल को रोकने का नाम योग है), तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम् (तब द्रष्टा मनुष्य अपने स्वरूप में स्थित होता है, वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र ( शेष समय वह अपने चित्त की वृत्तियों के साथ एकाकार करके अपने आपको देखता है।)। ये तीन सूत्र बहुत ही स्पष्ट रूप में मनुष्य के जीवन के स्वरूप और उसकी दिशा और उसके लक्ष्य का संकेत करते हैं। आप अपने सच्चे स्वरूप को जान सकते हैं बशर्ते आप अपने चित्त की हलचल को सर्वथा शांत कर सकें। हमारा बोलना और सोचना चित्त की ऐसी हलचल है जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है। अपने अंदर शब्दों में उठनेवाले विचारों को शांत कर आप अपने सच्चे स्वरूप को जान सकते हैं।
पतंजलि ने इसलिए योग का अंतिम लक्ष्य समाधि बताया है। योगसूत्र (1.47) वे कहते हैं निर्विचार-वैशारद्ये अध्यात्म-प्रसादः। (जब मनुष्य निर्वचार समाधि की अवस्था में पहुँचता तब उसे अपने निर्मल स्वरूप का ज्ञान होता है)।
प्र. पर अपना सामाजिक ज़िम्मदारियों को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए आंतरिक शांति की तलाश करना पलायनवाद नहीं हैय़
टि. जब आपका मन शांत होता है तब आप अपने कर्तव्य को स्पष्टता से समझ सकते हैं और उससे अनुसार कार्य कर सकते हैं। शेष समय वास्तव में सामाजिक राजनैतिक कार्य करते हुए अधिकतर अपने आप से भाग रहे होते हैं। पर आप दुनिया में सबकुछ से पीछा छुड़ा सकते हैं अपने आप से नहीं। अशांत मन के द्वारा किए गए कार्य से समस्याएँ सुलझने के बजाय उलझती ही अधिक हैं। गाधी जी की प्रार्थनासभा में प्रतिदिन गीता के ‘स्थितप्रज्ञ’ से संबंधित श्लोकों का पाठ होता था। स्थितप्रज्ञ उस व्यक्ति को कहते हैं जिसका मन पूरी तरह शांत हो। और आप मानेंगे कि गांधी जी के मार्गदर्शन में देश की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं पर जितना गंभीर चिन्तन और व्यावहारिक काम हुआ वैसा बाद के नेताओं द्वारा नहीं किया जा सका।

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