अनिल विद्यालंकार
भारतीय चिन्तन को समझना कहाँ से प्रारंभ किया जाए, यह प्रश्न उन सभी के मन में उठना स्वाभाविक है जो इस यात्रा पर चलने का विचार करते हैं। कौन-सी पुस्तक अच्छी रहेगी, कौन-सा गुरु मेरे लिए ठीक रहेगा, मुझे किस आश्रम में जाना चाहिए, ये प्रश्न बार-बार सुनाई पड़ते हैं। इन प्रश्नों का कोई निश्चित उत्तर नहीं है। कोई एक ऐसी पुस्तक नहीं है जिसमें भारतीय चिन्तन का निचोड़ दे दिया गया हो (वास्तव में ऐसी पुस्तक तैयार करना भी असंभव है क्योंकि भारतीय चिन्तन इतना बहु-आयामी है और काल में उसकी परंपरा इतना पुरानी है कि किसी भी लेखक के लिए ऐसा कुछ लिखना असंभव है जो भारतीय चिन्तन के सभी पक्षों के साथ न्याय करते हुए सभी पाठकों की सहायता कर सके।) ऐसा कोई गुरु नहीं है जो आपकी सभी समस्याओं का समाधान कर सके, और यदि आप किसी गुरु का शिष्यत्व ग्रहण कर भी लेते हैं तो आपके सही मार्ग से भटकने की संभावना भी बराबर बनी रहती है, कुछ गुरु के कारण और कुछ स्वयं आपके कारण।
वास्तव में भारतीय चिन्तन को सही ढंग से समझने का प्रारंभ आप अपने आप से ही करते हैं, किसी पुस्तक या गुरु से नहीं। यदि आप अपने आपको तटस्थ और निष्पक्ष होकर देख सकते हैं, यदि आपके अंदर समस्याओं के समझने का धैर्य है, यदि आप अपने दिमाग की सभी खिड़कियाँ खुली रखते हैं और सभी स्रोतों से सीखने के लिए तत्पर हैं, और यदि आप पिछले सभी संस्कारों से मुक्त होकर स्वतंत्र चिंतन करने के लिए तैयार रहते हैं तो आप पाएँगे कि भारतीय चिन्तन के सभी मूल तत्त्व आपके अंदर पहले से ही विद्यमान हैं। आपको केवल धीरे-धीरे उन्हें अपने अंदर खोजना है। आपको कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं है। पुस्तकें और गुरु आपकी सहायता कर सकते हैं पर आप को उनपर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं है।
वास्तव में यदि ऊपर कही बातें संसार के किसी भी मनुष्य में विद्यमान हैं तो वह भारतीय चिन्तन को आसानी से समझ सकता है भले ही उसकी राष्ट्रीयता या धर्म कोई भी हो। समझने में कुछ समय लग सकता है, पर मार्ग सबके लिए खुला है क्योंकि यह चिन्तन, अपने मूल रूप में, सार्वजनीन है और किसी समुदाय विशेष के लिए ही नहीं है। पिछले वर्षों में मुझे संसार के अनेक देशों के विभिन्न धर्मों के माननेवालों के साथ चर्चा करने का अवसर मिला है और इस बारे में कभी भी कोई कठिनाई नहीं हुई। हाँ इतना अवश्य हुआ है कि जन्म से गृहीत अपने संस्कारों को छोड़ने में बहुतों को दिक्कत अनुभव हुई है, पर ऐसी दिक्कत बहुत-से भारतीयों को भी होती है।
भारतीय चिन्तन की गहरी नींव वेदों के समय में पड़ गई थी। बाद के पाँच हज़ार साल में भारत में जो भी चिन्तन हुआ, वह उसका विस्तारमात्र है, कुछ प्रत्यक्ष रूप से और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से। ब्रिटिश दार्शनिक प्रो. ए. एन. ह्वाइटहैड ने कहा है कि पाश्यात्य दर्शन का पूरा इतिहास प्लेटो पर पाद-टिप्पणियों की एक शृंखलामात्र है। जिन्होंने पाश्चात्य दर्शन का अध्ययन किया है वे प्रो. ह्वाइटहैड से बहुत सीमा तक सहमत होंगे। इसी प्रकार कहा जा सकता है समग्र भारतीय चिन्तन वैदिक चिन्तन का ही विस्तार है। ऋग्वेद में एक ऋषि ने घोषणा की थी – पुरुष एद इदं सर्वं यद् भूतं यत् च भव्यम् – यहाँ जो कुछ भी है, जो पहले हो चुका है और जो कुछ भी आगे होगा वह सब पुरुष – विश्व चैतन्य – ही है। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि न केवल भारतीय चिन्तन अपितु संसार के सभी देशों में जो भी चिन्तन अबतक हुआ है, अब हो रहा है और आगे कभी भी होगा वह केवल इस आधे मंत्र की व्याख्यामात्र है। (मंत्र और उस पर टिप्पणी इस अंक के अंत की ओर देखें)। और इस चिन्तन में वैज्ञानिक चिन्तन भी शामिल है। हम धीरे-धीरे वैदिक ऋषि की इस उक्ति की गहराई से परिचित होने का प्रयास करेंगे। इस अंक में भौतिकी में नोबेल-पुरस्कार प्राप्त एर्विन श्रडंगर का एक लेख The Vedantic Vision सम्मिलित है जिसमें वे वैदिक ऋषि की इस मान्यता की पुष्टि कर रहे हैं कि सृष्टि में जो भी कुछ है वह ब्रह्म ही है (सर्वं खलु इदं ब्रह्म)।
हम धीरे-धीरे देखेंगे हमारे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह सब हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना का खेल है, और यह भी कि हममें से प्रत्येक की व्यक्तिगत चेतना विश्व चैतन्य का ही अंश है। इससे भी आगे चलकर हम पाएँगे कि उस विश्व चैतन्य को जानने के लिए हमें कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तो उसे हमारे जीवन के सभी पक्षों में व्याप्त होना चाहिए। और सचमुच ऐसा ही है। वह वहाँ है जहाँ हम हैं। और हम कहाँ हैंय़ हम वहाँ हैं जहाँ हमारा चिन्तन है। रेने देकार्त ने कहा था Cogito ergo sum (मैं सोचता हूँ इस लिए मैं हूँ।) यह कथन अक्षरशः सत्य है। हम इसलिए हैं कि हम सोचते हैं। जे. कृष्णमूर्ति कहते थे कि चिन्तन की प्रक्रिया से अलग कोई चिन्तक नहीं है। यदि हम चिन्तन के ऊपर उठ सकें तो हमारी सत्ता का सर्वथा नये रूप में अंतरण हो जाएगा, हम अपने आप को एक बिल्कुल ही नये रूप में पाएँगे।
मनुष्य के लिए चिन्तन करना बहुत स्वाभाविक है। वास्तव में मनुष्य है ही इसलिए वह सोचता है (मनुते इति मनुष्यः)। पर चिन्तन की प्रकृति और उसकी सीमा को समझना बहुत आवश्यक है। अपनी पुस्तक The Limits of Thought में जे. कृष्णमूर्ति और प्रसिद्ध भौतिकीविद् डेविड बॉम मनुष्य के जीवन और संसार के विविध पक्षों पर चर्चा करते हुए इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि चिन्तन की एक सीमा है, और जीवन के और विज्ञान के जगत् के भी अंतिम सत्य को चिन्तन के द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता। इस अंक में सम्मिलित अपने लेख में एर्विन श्रडंगर भी कह रहे हैं कि तार्किक चिन्तन के द्वारा हम सृष्टि के आधारभूत रहस्यों को नहीं जान सकते क्योंकि तार्किक चिन्तन स्वयं उस चीज़ का अंग है जिसका वह अध्ययन कर रहा है।
आम मनुष्य के लिए अपनी चिन्तन की प्रक्रिया को बंद करना आसान नहीं है। इसके लिए किसी न किसी रूप में योग की साधना आवश्यक है। पतंजलि ने योग की परिभाषा में कहा है – योगः चित्तवृत्ति निरोधः – (चित्त की हलचल को रोकने का नाम योग है)। भाषा भी चित्त की एक हलचल है। हम देखेंगे भाषा के मूल स्वरूप को समझकर हम अपनी आध्यात्मिक साधना के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं और अपने अंदर विद्यमान परम चैतन्य को पा सकते हैं। यह आसानी से माना जा सकता है कि अधिकतर लोगों की रुचि या पहुँच भाषा के इस गहनतम पक्ष में नहीं होगी, पर भाषा की प्रकृति और उसकी की सीमा पर तो भाषाविदों ओर शिक्षाविदों का ध्यान जाना ही चाहिए। भाषाविषयक अज्ञान के कारण हमारी शिक्षा में व्यय किये जानेवाले धन, समय और शक्ति का बहुत वड़ा अंश न केवल व्यर्थ जा रहा है अपितु वह बच्चों में नकारात्मक संस्कार पैदा कर रहा है। इस पत्रिका में भाषा की चर्चा बार-बार आएगी, केवल उसके सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षिक रूप में ही नहीं अपितु उसकी उन गहराइयों के साथ जिन तक हमारे बुद्धिजीवियों का ध्यान नहीं जाता। हम देखेंगे कि यदि हम भाषा के रहस्य को जान लें तो हम पूरी सृष्टि के, स्वयं अपने और साथ ही परमात्मा के रहस्य को जान लेंगे। यदि आप में जीवन की गहरी समस्याओं के समझने में रुचि है और उसके लिए पर्याप्त धैर्य है तो हम आपकी सहायता कर सकेंगे ऐसा माना जा सकता है।
‘भारत-संधान’ के अगले अंक में हम ऋग्वेद में वर्णित भाषा की चार अवस्थाओं के बारे में पढेंगे। वेद के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रत्येक क्षण ब्रह्म या परमात्मा से आता है। यानी आपका परमात्मा आपकी भाषा में ही छिपा हुआ है। यदि आप परमात्मा को जानना चाहें तो आपको कुछ नहीं करना केवल अपने मन को इतना शांत करना है कि उसमें कोई शब्द न पैदा हो। तब आप अपनी भाषा के स्रोत को इस दृश्य संसार के पीछे छिपे हुए परम चैतन्य में देख सकेंगे। जिन ऋषियों ने ‘शब्दब्रह्म’ (शब्दों के रूप में प्रकट हो रहे ब्रह्म) की खोज की थी उन्होंने सृष्टि के अंतिम रहस्य को जान लिया था। हम देखेंगे कि आधुनिक काल के कुछ श्रेष्ठ वैज्ञानिक और दार्शनिक भी कुछ इसी प्रकार की मान्यता के निकट पहुँच रहे हैं।
उस परम चैतन्य को समझे बिना और उसके ज्ञान को अपने जीवन के सभी पक्षों में लाए बिना हम अपनी किसी भी समस्या को न तो सही ढंग से समझ सकते हैं, न उसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। देश की या संसार की वर्तमान समस्याएँ टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं सुलझेंगी। सभी समस्याएँ परस्पर संश्लिष्ट हैं और उन्हें एक विराट सत्य के परिप्रेक्ष्य में ही समझा और सुलझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक समाज में मनुष्यों के धर्म का प्रभाव राजनीति पर, राजनीति का अर्थनीति और सामाजिक व्यवस्था पर, सामाजिक व्यवस्था का शिक्षा पर, शिक्षा का साहित्य और दर्शन पर और इन सभी का सम्मिलित प्रभाव मनुष्य की वैयक्तिक और सामूहिक चेतना पर पड़ता है। व्यक्ति को सुरक्षा और शांति देने के लिए पूरे समाज और विश्व में सुरक्षा और शांति का वातावरण बनाना होगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद ही समस्या केवल दो धर्मों के या दो संस्कृतियों के बीच की टकराहट नहीं है, और न यह समस्या केवल सैनिक, आर्थिक या राजनैतिक उपायों से सुलझाई जा सकती है। आतंकवाद की समस्या के पीछे मनुष्य की ईश्वर के प्रति गलत अवधारणा और उस पर आधारित धार्मिक परंपरा है। यदि ईसाई लोग कट्टरता से यह मानते हैं ईसामसीह ही ईश्वर के एकमात्र पुत्र थे और उनके नाम पर प्रचलित धर्म को पूरे संसार में फैलाना प्रत्येक ईसाई का पवित्र कर्तव्य है, और यदि उतनी ही कट्टरता से मुसलमान यह मानते हैं कि अल्लाह के एकमात्र सच्चे पैगंबर हज़रत मुहम्मद थे और दुनिया के सभी लोगों को उन्हीं पर ईमान लाना है, तो दोनों धर्मों के बीच संवाद की गुंजाइश ही कहाँ हैय़ इन दोनों धर्मो के बीच टकराहट तो होनी ही है। कभी-कभी कुछ समझदार ईसाई नेताओँ और ‘मॉडरेट’ मुस्लिमों के आपसी सहयोग से कहीं पर शांति लाई जा सकती है, पर बहुत शीघ्र ही वह शांति भंग हो जाती है क्योंकि अपने मज़हब से ऊपर उठकर देख सकनेवालों के मुकाबले उन लोगों की संख्या कहीं ज़्यादा है जो अपने मज़हब के सिद्धान्तों से कट्टरता से बँधे हुए हैं और जिनकी कट्टरता ने उनकी विचार-शक्ति को बिल्कुल दबा दिया है। यह समस्या केवल ईसाई और मुसलमानों के बीच ही नहीं है, भारत में होनेवाले सांप्रदायिक झगड़ों और दंगों में धार्मिक नासमझी और उससे पैदा होनेवाला उन्माद साफ़ दिखाई देता है।
यदि कभी इन धर्मों के बीच सुलह होगी तो वह केवल तभी जब सभी धर्मों के अनुयायी अपनी-अपनी मान्यताओं से ऊपर उठकर यह जानें कि सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक परमात्मा को देश-काल के किसी भी बंधन में नहीं रखा जा सकता – न तो किसी व्यक्ति के, न किसी पुस्तक के, और न किन्हीं सिद्धांतों के। व्यक्ति, समाज और संसार में स्थायी शांति और सामंजस्य लाने के लिए सभी धर्मों के अनुयाइओं को अपने-अपने मज़हबों से ऊपर उठकर सही धार्मिक समझ पैदा कर एक विश्व-धर्म की और बढ़ना होगा जिसका कुछ संकेत आप स्वामी विवेकानन्द के इस अंक में सम्मिलित लेख में पा सकेंगे।
यह भी आसानी से समझ में आनेवाली बात है कि संसार में वर्तमान आर्थिक गतिविधियों के चलते न केवल संसार के देशों की आर्थिक समस्याओँ का समाधान नहीं होने वाला अपितु वे समस्याएँ निरंतर बढ़नेवाली हैं। जिस प्रकार प्रकृति के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, उसके कारण हमारी धरती धीरे-धीरे जीवन का संभरण करने की क्षमता खोती जा रही है। जिसे हम विकास कहते हैं वह हमें विनाश की ओर ले जा रहा है, और हम देखते हुए भी इस समस्या की ओर से आँखे मूँदे हुए हैं।
आज संसार के सभी देशों को मिलकर तय करना है कि विकास का मतलब आखिर क्या हैय़ क्या तथाकथित विकसित देशों के सभी लोग विकसित मनुष्य हैं, और क्या अविकसित देशों में मनुष्य के विकास की संभावना नहीं हैय़ आगे चलकर हम देखेंगे कि विकास वास्तव में देश का नहीं अपितु मनुष्य का होना है, और जी.डी.पी. के स्थान पर हमें मनुष्य को समझने की ऐसी दृष्टि विकसित करनी है जिसके आधार पर प्रत्येक व्यक्ति जान सके कि उसका कितना विकास हुआ है और वह किस प्रकार आगे अपना विकास कर सकता है। हम देखेंगे कि यह न केवल वांछनीय है अपितु पूरी तरह संभव है। मनुष्य के विकास और देशों के भौतिक विकास में कोई सीधा संबंध नहीं है। वास्तव में तथाकथित विकसित देशों के नेता यदि वस्तव में विकसित मनुष्य होते तो संसार का यह हाल नहीं होता। आंतरिक रूप से विकसित मनुष्यों के द्वारा ही संसार के देशों का स्थायी विकास संभव है। हमें देशों के भौतिक विकास से पहले मनुष्यों के वास्तविक विकास का मार्ग खोजना होगा अन्यथा हमारी भौतिक प्रगति ही हमारे विनाश का कारण बन सकती है।
सभी देशों में परिवार टूट रहे हैं और व्यक्ति के अंदर, चाहे वह विकसित देशों का हो या अविकसित देशों का, आज एक अजीब भटकन, दिशाहीनता, असहायता और हताशा जन्म ले रही है। अकेले जापान में प्रतिवर्ष 30000 से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं जो इस बात का स्पष्ट संकेत करता है कि आर्थिक विकास मनुष्य की मूलभूत समस्याओं को हल करने में सर्वथा असमर्थ रहा है।
हमारे गरीब देश में शिक्षा के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। उस पर इस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता कि हमारे यहाँ शिक्षा पर खर्च किए जाने वाला पचहत्तर प्रतिशत से अधिक पैसा अनेक रूपों में व्यर्थ जा रहा है। विद्यार्थियों पर दूषित शिक्षा-पद्धति का जो आजीवन रहनेवाला नकारात्मक प्रभाव पड़ता है उस पर हमारे तथाकथित शिक्षाशास्त्रियों का भी ध्यान नहीं है। सचाई यह है कि आज हमारी शिक्षा का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वे स्वयं पूरी तरह शिक्षित नहीं हैं। शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व करने के लिए बनाई गई संस्थाएँ हमारा मार्गदर्शन करने के बजाय हमारे ऊपर बोझ बन गई हैं। हमें यह तय करना है कि शिक्षा का उद्देश्य आखिर क्या है। किस व्यक्ति को हम शिक्षित कहेंगेय़ हमें एक शिक्षित भारतीय का खाका बनाना है ताकि हम उसके अनुसार देख सकें कि हमारे बच्चों की शिक्षा सही दिशा में जा रही है या नहीं। आज तो शिक्षा का केवल एक ही उद्देश्य रह गया है – बच्चों को अंग्रेज़ी सिखाकर उन व्यवसायों के लायक बनाना जिनमें पैसा अच्छा मिलता हो। आधुनिक शिक्षा हमारे बच्चों के जीवन को तो विकृत कर ही रही है साथ ही वह समाज और देश में विषमता, तनाव और हिंसा पैदा कर रही है इस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता।
चेतना समाज में नहीं होती, व्यक्ति में होती है। समाज केवल एक अवधारणा है। जैसे कि जे. कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं, समाज में यदि परिवर्तन लाना है तो वह व्यक्ति की चेतना में परिवर्तन लाने से होगा। और यह एक सत्य है कि आप किसी और की चेतना नहीं बदल सकते हैं। यदि आप बदल सकते हैं तो केवल अपनी ही चेतना। भारतीय योग की परंपरा व्यक्ति की चेतना को ही बदलने का प्रयास है – एक ऐसा प्रयास जिसका उद्देश्य व्यक्ति की सीमित चेतना को उसके असीम स्रोत का साथ जोडना है। योग का अर्थ ही जोड़ना, मिलाना है। हम आगे देखेंगे कि यदि आप योग का उसके सही अर्थ में अभ्यास करते हैं, केवल आसन और प्राणायाम के लिए नहीं, तो आपको धर्म की कोई ज़रूरत नहीं है। योग स्वयं अपने अंदर पूरा धर्म है, और यही भारत की सच्ची परंपरा का धर्म है जिसे हम हिन्दू धर्म या सनातन धर्म कह सकते हैं जैसा कि इस अंक में श्री अरविन्द के लेख में स्पष्ट संकेत किया गया है।
अपने जीवन की समस्याएँ आप ही अच्छी तरह समझ सकते हैं और उन्हें सुलझा सकते है। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, समस्याएँ अनेक रूप लेती है – शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि। पर सभी समस्याओं पीछे मूल कारण आपका और अन्य मनुष्यों का मन और अहंकार है। हमारी वैयक्तिक, सामाजिक और यहाँ तक कि हमारी राजनैतिक और आर्थिक समस्याएँ भी हमारे और अन्य मनुष्यों के मन की बनाई हुई हैं। आइंस्टाइन ने कहा था कि हम अपनी समस्याओं को चिन्तन के उस स्तर पर रहकर नहीं सुलझा सकते जिस स्तर पर वे पैदा हुई थीं।
आइंस्टाइन के ही अनुसार
मनुष्य उस पूर्ण का जिसे हम विश्व कहते हैं देश-काल में सीमित एक अंश है। हमें लगता है कि हम, हमारे विचार और हमारी अनुभूतियाँ शेष से अलग हैं। यह हमारी चेतना का एक दृष्टिगत भ्रम ही है। यह भ्रम ही हमारे लिए एक जेल है जो हमें हमारी निजी इच्छाओं और जो लोग हमारे निकट हैं उनके प्रति स्नेह तक ही बंद कर रख देती है। हमारा उद्देश्य अपनी सहानुभूति के क्षेत्र को इतना बढ़ाना होना चाहिए कि उसमें सभी प्राणी और अपनी सुंदरता के साथ समूची प्रकृति आजाए। तब हमें इस जेल से छुटकारा मिलेगा। मनुष्यों की सच्ची श्रेष्ठता इस बात से जानी जा सकती है कि उन्होंने अपने अहंकार से कितनी मुक्ति पा ली है। अगर मनुष्य जाति को जीवित रहना है तो हमें चिन्तन के एक सर्वथा नये प्रकार की ज़रूरत होगी।
आइंस्टाइन चिन्तन के जिस नये प्रकार की बात करते हैं उसका स्वरूप क्या होगा। श्री अरविन्द के दर्शन का सार यही है कि मनुष्य को मन के स्तर से अतिमानस के स्तर (mind to supermind) तक उठना है। जे. कृष्णमूर्ति बार-चिन्तन की प्रकृति और सीमा को समझने पर बल देते थे।
समस्याओँ को समझने और उन्हें सुलझाने के लिए मनुष्य की चेतना की प्रकृति को जानना ज़रूरी है। हम देखेंगे कि ज्यों-ज्यों आप अपनी चेतना को समझते जाते हैं त्यों-त्यों आपकी समस्याएँ स्वतः स्पष्ट होती जाती हैं और उनमें से आपके व्यक्तिगत जीवन से संबंधित बहुत-सी समस्याएँ साथ-साथ सुलझती भी जाती हैं।
हम भारतीयों को भारतीय चिन्तन के अनुसार अपनी जीवन-शैली का विकास करना होगा। दर्शन का उद्देश्य जीवन के सत्य के बारे में केवल शाब्दिक चर्चा नहीं है अपितु उसका उद्देश्य सत्य को समझकर उसके अनुसार जीवन में परिवर्तन लाना है। कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘दार्शनिकों ने केवल संसार की अनेक प्रकार से व्याख्या ही की है, पर उद्देश्य तो संसार को बदलना है।’’ कार्ल मार्क्स के दर्शन से बहुत-से लोग असहमत होंगे, पर दर्शन के उद्देश्य के बारे में उसके कथन से तो सहमत होना ही पड़ेगा। भारतीय परंपरा में दर्शन का उद्देश्य जीवन को समझकर उस समझ के अनुसार जीवन को बदलना रहा है (यद्यपि यह सच है कि भारत में भी शब्दजाल में फँसे रहकर जीवन बितानेवाले विद्वानों की कमी नहीं रही है, और न अब है।) हमारे अपने ही समय में जे. कृष्णमूर्ति बार-बार इस बात पर ध्यान दिलाते थे कि केवल उनके व्याख्यानों को सुनकर संतोष कर लेने से कुछ नहीं होगा। आवश्यकता है जीवन के बदलने की। The Urgency of Change उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है जिसका नाम ही बता रहा है कि जीवन को बदलने के बारे में वे कितने गंभीर थे। उन्हें अपने अनुयाइयों से सदा यह शिकायत रही कि वे उन्हें सुनते तो बहुत ध्यान से हैं पर अपने जीवन को बदलने पर ध्यान नहीं देते। महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। केवल चर्चा करना ही काफ़ी नहीं है, अपने विचारों पर आचरण करना आवश्यक है।
भारतीय मनीषा केवल उथले स्तर पर जीवन की खोज करके संतुष्ट नहीं हुई है। उसने सदा जीवन और जगत् के गहनतम स्तर पर जाने का प्रयास किया है, और इस नाते भारतीय दर्शन पाश्चात्य दर्शन से बहुत भिन्न है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है यदि आधुनिक भारतीय विद्वान भारतीय दर्शन में रुचि नहीं ले रहे हों। हमारे विश्वविद्यालयों में जब दर्शन का कोर्स पढ़ाया जाता है तो वहाँ भारतीय दर्शन बिलकुल हाशिये पर रख दिया जाता है। जिस प्रकार हम अंधे होकर पश्चिम की हर चीज़ की नकल कर रहे हैं, दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए श्री अरविन्द के चिन्तन से भी हमारे भारतीय विद्वान अपरिचित हैं यद्यपि उनका साहित्य मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखा गया है और आसानी से उपलब्ध है।
पर दर्शन केवल विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जानेवाला एक विषयमात्र नहीं है जिसकी कुछ किताबें पढ़कर कोई भी बी.ए. और एम. ए. की डिग्री हासिल कर ले। दर्शन का संबंध हमारे जीवन और उसके सभी पहलुओं से है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि दर्शन का उद्देश्य सत्य की खोज और उस सत्य के अनुसार अपने जीवन को चलाना है।
भारतीय चिन्तन को समझने के लिए उसका शाव्दित ज्ञान आवश्यक है। पर उसके शब्दों का अर्थ आप सही अर्थों में तभी समझ पाएँगे जब आप उस चिन्तन को जिएँगे। आप देखेंगे कि भारतीय चिन्तन आपके जीवन में आमूल परिवर्तन ला सकता है। और यदि आप अपने अंदर परिवर्तन ला सकें तो समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करने में आपको विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
Friday, April 13, 2007
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1 comment:
AAP KE LEKH VICHAR ADBHUT BUS APKO PRANAM AGE APKO OR PADH SAKU YAHI PRAYAS RAHEGA SUNDER ADBHUT
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