Friday, April 13, 2007

भारतीय चिन्तन और आपका जीवन

अनिल विद्यालंकार
भारतीय चिन्तन को समझना कहाँ से प्रारंभ किया जाए, यह प्रश्न उन सभी के मन में उठना स्वाभाविक है जो इस यात्रा पर चलने का विचार करते हैं। कौन-सी पुस्तक अच्छी रहेगी, कौन-सा गुरु मेरे लिए ठीक रहेगा, मुझे किस आश्रम में जाना चाहिए, ये प्रश्न बार-बार सुनाई पड़ते हैं। इन प्रश्नों का कोई निश्चित उत्तर नहीं है। कोई एक ऐसी पुस्तक नहीं है जिसमें भारतीय चिन्तन का निचोड़ दे दिया गया हो (वास्तव में ऐसी पुस्तक तैयार करना भी असंभव है क्योंकि भारतीय चिन्तन इतना बहु-आयामी है और काल में उसकी परंपरा इतना पुरानी है कि किसी भी लेखक के लिए ऐसा कुछ लिखना असंभव है जो भारतीय चिन्तन के सभी पक्षों के साथ न्याय करते हुए सभी पाठकों की सहायता कर सके।) ऐसा कोई गुरु नहीं है जो आपकी सभी समस्याओं का समाधान कर सके, और यदि आप किसी गुरु का शिष्यत्व ग्रहण कर भी लेते हैं तो आपके सही मार्ग से भटकने की संभावना भी बराबर बनी रहती है, कुछ गुरु के कारण और कुछ स्वयं आपके कारण।
वास्तव में भारतीय चिन्तन को सही ढंग से समझने का प्रारंभ आप अपने आप से ही करते हैं, किसी पुस्तक या गुरु से नहीं। यदि आप अपने आपको तटस्थ और निष्पक्ष होकर देख सकते हैं, यदि आपके अंदर समस्याओं के समझने का धैर्य है, यदि आप अपने दिमाग की सभी खिड़कियाँ खुली रखते हैं और सभी स्रोतों से सीखने के लिए तत्पर हैं, और यदि आप पिछले सभी संस्कारों से मुक्त होकर स्वतंत्र चिंतन करने के लिए तैयार रहते हैं तो आप पाएँगे कि भारतीय चिन्तन के सभी मूल तत्त्व आपके अंदर पहले से ही विद्यमान हैं। आपको केवल धीरे-धीरे उन्हें अपने अंदर खोजना है। आपको कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं है। पुस्तकें और गुरु आपकी सहायता कर सकते हैं पर आप को उनपर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं है।
वास्तव में यदि ऊपर कही बातें संसार के किसी भी मनुष्य में विद्यमान हैं तो वह भारतीय चिन्तन को आसानी से समझ सकता है भले ही उसकी राष्ट्रीयता या धर्म कोई भी हो। समझने में कुछ समय लग सकता है, पर मार्ग सबके लिए खुला है क्योंकि यह चिन्तन, अपने मूल रूप में, सार्वजनीन है और किसी समुदाय विशेष के लिए ही नहीं है। पिछले वर्षों में मुझे संसार के अनेक देशों के विभिन्न धर्मों के माननेवालों के साथ चर्चा करने का अवसर मिला है और इस बारे में कभी भी कोई कठिनाई नहीं हुई। हाँ इतना अवश्य हुआ है कि जन्म से गृहीत अपने संस्कारों को छोड़ने में बहुतों को दिक्कत अनुभव हुई है, पर ऐसी दिक्कत बहुत-से भारतीयों को भी होती है।
भारतीय चिन्तन की गहरी नींव वेदों के समय में पड़ गई थी। बाद के पाँच हज़ार साल में भारत में जो भी चिन्तन हुआ, वह उसका विस्तारमात्र है, कुछ प्रत्यक्ष रूप से और कुछ अप्रत्यक्ष रूप से। ब्रिटिश दार्शनिक प्रो. ए. एन. ह्वाइटहैड ने कहा है कि पाश्यात्य दर्शन का पूरा इतिहास प्लेटो पर पाद-टिप्पणियों की एक शृंखलामात्र है। जिन्होंने पाश्चात्य दर्शन का अध्ययन किया है वे प्रो. ह्वाइटहैड से बहुत सीमा तक सहमत होंगे। इसी प्रकार कहा जा सकता है समग्र भारतीय चिन्तन वैदिक चिन्तन का ही विस्तार है। ऋग्वेद में एक ऋषि ने घोषणा की थी – पुरुष एद इदं सर्वं यद् भूतं यत् च भव्यम् – यहाँ जो कुछ भी है, जो पहले हो चुका है और जो कुछ भी आगे होगा वह सब पुरुष – विश्व चैतन्य – ही है। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि न केवल भारतीय चिन्तन अपितु संसार के सभी देशों में जो भी चिन्तन अबतक हुआ है, अब हो रहा है और आगे कभी भी होगा वह केवल इस आधे मंत्र की व्याख्यामात्र है। (मंत्र और उस पर टिप्पणी इस अंक के अंत की ओर देखें)। और इस चिन्तन में वैज्ञानिक चिन्तन भी शामिल है। हम धीरे-धीरे वैदिक ऋषि की इस उक्ति की गहराई से परिचित होने का प्रयास करेंगे। इस अंक में भौतिकी में नोबेल-पुरस्कार प्राप्त एर्विन श्रडंगर का एक लेख The Vedantic Vision सम्मिलित है जिसमें वे वैदिक ऋषि की इस मान्यता की पुष्टि कर रहे हैं कि सृष्टि में जो भी कुछ है वह ब्रह्म ही है (सर्वं खलु इदं ब्रह्म)।
हम धीरे-धीरे देखेंगे हमारे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह सब हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना का खेल है, और यह भी कि हममें से प्रत्येक की व्यक्तिगत चेतना विश्व चैतन्य का ही अंश है। इससे भी आगे चलकर हम पाएँगे कि उस विश्व चैतन्य को जानने के लिए हमें कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तो उसे हमारे जीवन के सभी पक्षों में व्याप्त होना चाहिए। और सचमुच ऐसा ही है। वह वहाँ है जहाँ हम हैं। और हम कहाँ हैंय़ हम वहाँ हैं जहाँ हमारा चिन्तन है। रेने देकार्त ने कहा था Cogito ergo sum (मैं सोचता हूँ इस लिए मैं हूँ।) यह कथन अक्षरशः सत्य है। हम इसलिए हैं कि हम सोचते हैं। जे. कृष्णमूर्ति कहते थे कि चिन्तन की प्रक्रिया से अलग कोई चिन्तक नहीं है। यदि हम चिन्तन के ऊपर उठ सकें तो हमारी सत्ता का सर्वथा नये रूप में अंतरण हो जाएगा, हम अपने आप को एक बिल्कुल ही नये रूप में पाएँगे।
मनुष्य के लिए चिन्तन करना बहुत स्वाभाविक है। वास्तव में मनुष्य है ही इसलिए वह सोचता है (मनुते इति मनुष्यः)। पर चिन्तन की प्रकृति और उसकी सीमा को समझना बहुत आवश्यक है। अपनी पुस्तक The Limits of Thought में जे. कृष्णमूर्ति और प्रसिद्ध भौतिकीविद् डेविड बॉम मनुष्य के जीवन और संसार के विविध पक्षों पर चर्चा करते हुए इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि चिन्तन की एक सीमा है, और जीवन के और विज्ञान के जगत् के भी अंतिम सत्य को चिन्तन के द्वारा नहीं पकड़ा जा सकता। इस अंक में सम्मिलित अपने लेख में एर्विन श्रडंगर भी कह रहे हैं कि तार्किक चिन्तन के द्वारा हम सृष्टि के आधारभूत रहस्यों को नहीं जान सकते क्योंकि तार्किक चिन्तन स्वयं उस चीज़ का अंग है जिसका वह अध्ययन कर रहा है।
आम मनुष्य के लिए अपनी चिन्तन की प्रक्रिया को बंद करना आसान नहीं है। इसके लिए किसी न किसी रूप में योग की साधना आवश्यक है। पतंजलि ने योग की परिभाषा में कहा है – योगः चित्तवृत्ति निरोधः – (चित्त की हलचल को रोकने का नाम योग है)। भाषा भी चित्त की एक हलचल है। हम देखेंगे भाषा के मूल स्वरूप को समझकर हम अपनी आध्यात्मिक साधना के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं और अपने अंदर विद्यमान परम चैतन्य को पा सकते हैं। यह आसानी से माना जा सकता है कि अधिकतर लोगों की रुचि या पहुँच भाषा के इस गहनतम पक्ष में नहीं होगी, पर भाषा की प्रकृति और उसकी की सीमा पर तो भाषाविदों ओर शिक्षाविदों का ध्यान जाना ही चाहिए। भाषाविषयक अज्ञान के कारण हमारी शिक्षा में व्यय किये जानेवाले धन, समय और शक्ति का बहुत वड़ा अंश न केवल व्यर्थ जा रहा है अपितु वह बच्चों में नकारात्मक संस्कार पैदा कर रहा है। इस पत्रिका में भाषा की चर्चा बार-बार आएगी, केवल उसके सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षिक रूप में ही नहीं अपितु उसकी उन गहराइयों के साथ जिन तक हमारे बुद्धिजीवियों का ध्यान नहीं जाता। हम देखेंगे कि यदि हम भाषा के रहस्य को जान लें तो हम पूरी सृष्टि के, स्वयं अपने और साथ ही परमात्मा के रहस्य को जान लेंगे। यदि आप में जीवन की गहरी समस्याओं के समझने में रुचि है और उसके लिए पर्याप्त धैर्य है तो हम आपकी सहायता कर सकेंगे ऐसा माना जा सकता है।
‘भारत-संधान’ के अगले अंक में हम ऋग्वेद में वर्णित भाषा की चार अवस्थाओं के बारे में पढेंगे। वेद के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रत्येक क्षण ब्रह्म या परमात्मा से आता है। यानी आपका परमात्मा आपकी भाषा में ही छिपा हुआ है। यदि आप परमात्मा को जानना चाहें तो आपको कुछ नहीं करना केवल अपने मन को इतना शांत करना है कि उसमें कोई शब्द न पैदा हो। तब आप अपनी भाषा के स्रोत को इस दृश्य संसार के पीछे छिपे हुए परम चैतन्य में देख सकेंगे। जिन ऋषियों ने ‘शब्दब्रह्म’ (शब्दों के रूप में प्रकट हो रहे ब्रह्म) की खोज की थी उन्होंने सृष्टि के अंतिम रहस्य को जान लिया था। हम देखेंगे कि आधुनिक काल के कुछ श्रेष्ठ वैज्ञानिक और दार्शनिक भी कुछ इसी प्रकार की मान्यता के निकट पहुँच रहे हैं।
उस परम चैतन्य को समझे बिना और उसके ज्ञान को अपने जीवन के सभी पक्षों में लाए बिना हम अपनी किसी भी समस्या को न तो सही ढंग से समझ सकते हैं, न उसका स्थायी समाधान खोज सकते हैं। देश की या संसार की वर्तमान समस्याएँ टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं सुलझेंगी। सभी समस्याएँ परस्पर संश्लिष्ट हैं और उन्हें एक विराट सत्य के परिप्रेक्ष्य में ही समझा और सुलझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक समाज में मनुष्यों के धर्म का प्रभाव राजनीति पर, राजनीति का अर्थनीति और सामाजिक व्यवस्था पर, सामाजिक व्यवस्था का शिक्षा पर, शिक्षा का साहित्य और दर्शन पर और इन सभी का सम्मिलित प्रभाव मनुष्य की वैयक्तिक और सामूहिक चेतना पर पड़ता है। व्यक्ति को सुरक्षा और शांति देने के लिए पूरे समाज और विश्व में सुरक्षा और शांति का वातावरण बनाना होगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद ही समस्या केवल दो धर्मों के या दो संस्कृतियों के बीच की टकराहट नहीं है, और न यह समस्या केवल सैनिक, आर्थिक या राजनैतिक उपायों से सुलझाई जा सकती है। आतंकवाद की समस्या के पीछे मनुष्य की ईश्वर के प्रति गलत अवधारणा और उस पर आधारित धार्मिक परंपरा है। यदि ईसाई लोग कट्टरता से यह मानते हैं ईसामसीह ही ईश्वर के एकमात्र पुत्र थे और उनके नाम पर प्रचलित धर्म को पूरे संसार में फैलाना प्रत्येक ईसाई का पवित्र कर्तव्य है, और यदि उतनी ही कट्टरता से मुसलमान यह मानते हैं कि अल्लाह के एकमात्र सच्चे पैगंबर हज़रत मुहम्मद थे और दुनिया के सभी लोगों को उन्हीं पर ईमान लाना है, तो दोनों धर्मों के बीच संवाद की गुंजाइश ही कहाँ हैय़ इन दोनों धर्मो के बीच टकराहट तो होनी ही है। कभी-कभी कुछ समझदार ईसाई नेताओँ और ‘मॉडरेट’ मुस्लिमों के आपसी सहयोग से कहीं पर शांति लाई जा सकती है, पर बहुत शीघ्र ही वह शांति भंग हो जाती है क्योंकि अपने मज़हब से ऊपर उठकर देख सकनेवालों के मुकाबले उन लोगों की संख्या कहीं ज़्यादा है जो अपने मज़हब के सिद्धान्तों से कट्टरता से बँधे हुए हैं और जिनकी कट्टरता ने उनकी विचार-शक्ति को बिल्कुल दबा दिया है। यह समस्या केवल ईसाई और मुसलमानों के बीच ही नहीं है, भारत में होनेवाले सांप्रदायिक झगड़ों और दंगों में धार्मिक नासमझी और उससे पैदा होनेवाला उन्माद साफ़ दिखाई देता है।
यदि कभी इन धर्मों के बीच सुलह होगी तो वह केवल तभी जब सभी धर्मों के अनुयायी अपनी-अपनी मान्यताओं से ऊपर उठकर यह जानें कि सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक परमात्मा को देश-काल के किसी भी बंधन में नहीं रखा जा सकता – न तो किसी व्यक्ति के, न किसी पुस्तक के, और न किन्हीं सिद्धांतों के। व्यक्ति, समाज और संसार में स्थायी शांति और सामंजस्य लाने के लिए सभी धर्मों के अनुयाइओं को अपने-अपने मज़हबों से ऊपर उठकर सही धार्मिक समझ पैदा कर एक विश्व-धर्म की और बढ़ना होगा जिसका कुछ संकेत आप स्वामी विवेकानन्द के इस अंक में सम्मिलित लेख में पा सकेंगे।
यह भी आसानी से समझ में आनेवाली बात है कि संसार में वर्तमान आर्थिक गतिविधियों के चलते न केवल संसार के देशों की आर्थिक समस्याओँ का समाधान नहीं होने वाला अपितु वे समस्याएँ निरंतर बढ़नेवाली हैं। जिस प्रकार प्रकृति के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, उसके कारण हमारी धरती धीरे-धीरे जीवन का संभरण करने की क्षमता खोती जा रही है। जिसे हम विकास कहते हैं वह हमें विनाश की ओर ले जा रहा है, और हम देखते हुए भी इस समस्या की ओर से आँखे मूँदे हुए हैं।
आज संसार के सभी देशों को मिलकर तय करना है कि विकास का मतलब आखिर क्या हैय़ क्या तथाकथित विकसित देशों के सभी लोग विकसित मनुष्य हैं, और क्या अविकसित देशों में मनुष्य के विकास की संभावना नहीं हैय़ आगे चलकर हम देखेंगे कि विकास वास्तव में देश का नहीं अपितु मनुष्य का होना है, और जी.डी.पी. के स्थान पर हमें मनुष्य को समझने की ऐसी दृष्टि विकसित करनी है जिसके आधार पर प्रत्येक व्यक्ति जान सके कि उसका कितना विकास हुआ है और वह किस प्रकार आगे अपना विकास कर सकता है। हम देखेंगे कि यह न केवल वांछनीय है अपितु पूरी तरह संभव है। मनुष्य के विकास और देशों के भौतिक विकास में कोई सीधा संबंध नहीं है। वास्तव में तथाकथित विकसित देशों के नेता यदि वस्तव में विकसित मनुष्य होते तो संसार का यह हाल नहीं होता। आंतरिक रूप से विकसित मनुष्यों के द्वारा ही संसार के देशों का स्थायी विकास संभव है। हमें देशों के भौतिक विकास से पहले मनुष्यों के वास्तविक विकास का मार्ग खोजना होगा अन्यथा हमारी भौतिक प्रगति ही हमारे विनाश का कारण बन सकती है।
सभी देशों में परिवार टूट रहे हैं और व्यक्ति के अंदर, चाहे वह विकसित देशों का हो या अविकसित देशों का, आज एक अजीब भटकन, दिशाहीनता, असहायता और हताशा जन्म ले रही है। अकेले जापान में प्रतिवर्ष 30000 से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं जो इस बात का स्पष्ट संकेत करता है कि आर्थिक विकास मनुष्य की मूलभूत समस्याओं को हल करने में सर्वथा असमर्थ रहा है।
हमारे गरीब देश में शिक्षा के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है। उस पर इस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता कि हमारे यहाँ शिक्षा पर खर्च किए जाने वाला पचहत्तर प्रतिशत से अधिक पैसा अनेक रूपों में व्यर्थ जा रहा है। विद्यार्थियों पर दूषित शिक्षा-पद्धति का जो आजीवन रहनेवाला नकारात्मक प्रभाव पड़ता है उस पर हमारे तथाकथित शिक्षाशास्त्रियों का भी ध्यान नहीं है। सचाई यह है कि आज हमारी शिक्षा का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वे स्वयं पूरी तरह शिक्षित नहीं हैं। शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व करने के लिए बनाई गई संस्थाएँ हमारा मार्गदर्शन करने के बजाय हमारे ऊपर बोझ बन गई हैं। हमें यह तय करना है कि शिक्षा का उद्देश्य आखिर क्या है। किस व्यक्ति को हम शिक्षित कहेंगेय़ हमें एक शिक्षित भारतीय का खाका बनाना है ताकि हम उसके अनुसार देख सकें कि हमारे बच्चों की शिक्षा सही दिशा में जा रही है या नहीं। आज तो शिक्षा का केवल एक ही उद्देश्य रह गया है – बच्चों को अंग्रेज़ी सिखाकर उन व्यवसायों के लायक बनाना जिनमें पैसा अच्छा मिलता हो। आधुनिक शिक्षा हमारे बच्चों के जीवन को तो विकृत कर ही रही है साथ ही वह समाज और देश में विषमता, तनाव और हिंसा पैदा कर रही है इस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता।
चेतना समाज में नहीं होती, व्यक्ति में होती है। समाज केवल एक अवधारणा है। जैसे कि जे. कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं, समाज में यदि परिवर्तन लाना है तो वह व्यक्ति की चेतना में परिवर्तन लाने से होगा। और यह एक सत्य है कि आप किसी और की चेतना नहीं बदल सकते हैं। यदि आप बदल सकते हैं तो केवल अपनी ही चेतना। भारतीय योग की परंपरा व्यक्ति की चेतना को ही बदलने का प्रयास है – एक ऐसा प्रयास जिसका उद्देश्य व्यक्ति की सीमित चेतना को उसके असीम स्रोत का साथ जोडना है। योग का अर्थ ही जोड़ना, मिलाना है। हम आगे देखेंगे कि यदि आप योग का उसके सही अर्थ में अभ्यास करते हैं, केवल आसन और प्राणायाम के लिए नहीं, तो आपको धर्म की कोई ज़रूरत नहीं है। योग स्वयं अपने अंदर पूरा धर्म है, और यही भारत की सच्ची परंपरा का धर्म है जिसे हम हिन्दू धर्म या सनातन धर्म कह सकते हैं जैसा कि इस अंक में श्री अरविन्द के लेख में स्पष्ट संकेत किया गया है।
अपने जीवन की समस्याएँ आप ही अच्छी तरह समझ सकते हैं और उन्हें सुलझा सकते है। जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, समस्याएँ अनेक रूप लेती है – शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि। पर सभी समस्याओं पीछे मूल कारण आपका और अन्य मनुष्यों का मन और अहंकार है। हमारी वैयक्तिक, सामाजिक और यहाँ तक कि हमारी राजनैतिक और आर्थिक समस्याएँ भी हमारे और अन्य मनुष्यों के मन की बनाई हुई हैं। आइंस्टाइन ने कहा था कि हम अपनी समस्याओं को चिन्तन के उस स्तर पर रहकर नहीं सुलझा सकते जिस स्तर पर वे पैदा हुई थीं।
आइंस्टाइन के ही अनुसार
मनुष्य उस पूर्ण का जिसे हम विश्व कहते हैं देश-काल में सीमित एक अंश है। हमें लगता है कि हम, हमारे विचार और हमारी अनुभूतियाँ शेष से अलग हैं। यह हमारी चेतना का एक दृष्टिगत भ्रम ही है। यह भ्रम ही हमारे लिए एक जेल है जो हमें हमारी निजी इच्छाओं और जो लोग हमारे निकट हैं उनके प्रति स्नेह तक ही बंद कर रख देती है। हमारा उद्देश्य अपनी सहानुभूति के क्षेत्र को इतना बढ़ाना होना चाहिए कि उसमें सभी प्राणी और अपनी सुंदरता के साथ समूची प्रकृति आजाए। तब हमें इस जेल से छुटकारा मिलेगा। मनुष्यों की सच्ची श्रेष्ठता इस बात से जानी जा सकती है कि उन्होंने अपने अहंकार से कितनी मुक्ति पा ली है। अगर मनुष्य जाति को जीवित रहना है तो हमें चिन्तन के एक सर्वथा नये प्रकार की ज़रूरत होगी।
आइंस्टाइन चिन्तन के जिस नये प्रकार की बात करते हैं उसका स्वरूप क्या होगा। श्री अरविन्द के दर्शन का सार यही है कि मनुष्य को मन के स्तर से अतिमानस के स्तर (mind to supermind) तक उठना है। जे. कृष्णमूर्ति बार-चिन्तन की प्रकृति और सीमा को समझने पर बल देते थे।
समस्याओँ को समझने और उन्हें सुलझाने के लिए मनुष्य की चेतना की प्रकृति को जानना ज़रूरी है। हम देखेंगे कि ज्यों-ज्यों आप अपनी चेतना को समझते जाते हैं त्यों-त्यों आपकी समस्याएँ स्वतः स्पष्ट होती जाती हैं और उनमें से आपके व्यक्तिगत जीवन से संबंधित बहुत-सी समस्याएँ साथ-साथ सुलझती भी जाती हैं।
हम भारतीयों को भारतीय चिन्तन के अनुसार अपनी जीवन-शैली का विकास करना होगा। दर्शन का उद्देश्य जीवन के सत्य के बारे में केवल शाब्दिक चर्चा नहीं है अपितु उसका उद्देश्य सत्य को समझकर उसके अनुसार जीवन में परिवर्तन लाना है। कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘दार्शनिकों ने केवल संसार की अनेक प्रकार से व्याख्या ही की है, पर उद्देश्य तो संसार को बदलना है।’’ कार्ल मार्क्स के दर्शन से बहुत-से लोग असहमत होंगे, पर दर्शन के उद्देश्य के बारे में उसके कथन से तो सहमत होना ही पड़ेगा। भारतीय परंपरा में दर्शन का उद्देश्य जीवन को समझकर उस समझ के अनुसार जीवन को बदलना रहा है (यद्यपि यह सच है कि भारत में भी शब्दजाल में फँसे रहकर जीवन बितानेवाले विद्वानों की कमी नहीं रही है, और न अब है।) हमारे अपने ही समय में जे. कृष्णमूर्ति बार-बार इस बात पर ध्यान दिलाते थे कि केवल उनके व्याख्यानों को सुनकर संतोष कर लेने से कुछ नहीं होगा। आवश्यकता है जीवन के बदलने की। The Urgency of Change उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है जिसका नाम ही बता रहा है कि जीवन को बदलने के बारे में वे कितने गंभीर थे। उन्हें अपने अनुयाइयों से सदा यह शिकायत रही कि वे उन्हें सुनते तो बहुत ध्यान से हैं पर अपने जीवन को बदलने पर ध्यान नहीं देते। महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। केवल चर्चा करना ही काफ़ी नहीं है, अपने विचारों पर आचरण करना आवश्यक है।
भारतीय मनीषा केवल उथले स्तर पर जीवन की खोज करके संतुष्ट नहीं हुई है। उसने सदा जीवन और जगत् के गहनतम स्तर पर जाने का प्रयास किया है, और इस नाते भारतीय दर्शन पाश्चात्य दर्शन से बहुत भिन्न है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है यदि आधुनिक भारतीय विद्वान भारतीय दर्शन में रुचि नहीं ले रहे हों। हमारे विश्वविद्यालयों में जब दर्शन का कोर्स पढ़ाया जाता है तो वहाँ भारतीय दर्शन बिलकुल हाशिये पर रख दिया जाता है। जिस प्रकार हम अंधे होकर पश्चिम की हर चीज़ की नकल कर रहे हैं, दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए श्री अरविन्द के चिन्तन से भी हमारे भारतीय विद्वान अपरिचित हैं यद्यपि उनका साहित्य मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखा गया है और आसानी से उपलब्ध है।
पर दर्शन केवल विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जानेवाला एक विषयमात्र नहीं है जिसकी कुछ किताबें पढ़कर कोई भी बी.ए. और एम. ए. की डिग्री हासिल कर ले। दर्शन का संबंध हमारे जीवन और उसके सभी पहलुओं से है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि दर्शन का उद्देश्य सत्य की खोज और उस सत्य के अनुसार अपने जीवन को चलाना है।
भारतीय चिन्तन को समझने के लिए उसका शाव्दित ज्ञान आवश्यक है। पर उसके शब्दों का अर्थ आप सही अर्थों में तभी समझ पाएँगे जब आप उस चिन्तन को जिएँगे। आप देखेंगे कि भारतीय चिन्तन आपके जीवन में आमूल परिवर्तन ला सकता है। और यदि आप अपने अंदर परिवर्तन ला सकें तो समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करने में आपको विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

Thursday, April 12, 2007

धर्म क्या हैय़

पिछले दिनों संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण को लेकर विवाद उठा। हमारे साम्यवादी मित्रों ने ‘सेकुलरिज़्म’ शब्द का अनुवाद ‘पंथनिरपेक्ष शब्द से करने पर आपत्ति उठाई। उनका कहना था कि ऐसा हिन्दू कट्टरवादियों के कहने पर किया गया है जिनके विचार से केवल हिन्दू धर्म ही धर्म है, शेष सब पंथ हैं। तथ्य यह है कि संविधान के अधिकृत हिन्दी प्रारूप में ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द ही दिया गया है। पर यह अच्छा है कि इस बहाने धर्म और धर्मनिरपेक्षता शब्द चर्चा के विषय बने हैं और आशा करनी चाहिए कि इस विषय को लेकर कुछ सार्थक संवाद हमें देखने को मिल सकेगा।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग उस अर्थ में नहीं होता रहा है जिस अर्थ में ईसाई पृष्ठभूमिवाले पश्चिम में ‘रिलिजन’ का या इस्लाम की पृष्ठभूमिवाले मध्य एशिया में ‘मज़हब’ शब्द का हुआ है। इस अंक में आप डा. पूर्णसिंह डबास का भारतीय परंपरा में धर्म शीर्षक से एक लेख पढ़ेंगे जिसमें विद्वान लेखक उन प्रमुख अर्थों की ओर ध्यान दिला रहे हैं जिनमें धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। लेख को पढने के बाद कुछ आपको स्पष्ट हो सकेंगी। उदाहरण के लिए
· जबकि इस्लाम और ईसाइयत मनुष्य और ईश्वर के संबंध को रिलिजन या मज़हब के लिए केन्द्र में रखते हैं, भारतीय परंपरा में धर्म में ईश्वर केन्द्र में नहीं है। कोई व्यक्ति ईश्वर को न मानते हुए भी धार्मिक हो सकता है जैसा कि बौद्ध और जैन मतावलंबियों के साथ होता रहा है।
· ईसाइयत और इस्लाम में धर्म का आधार एक व्यक्ति और एक पुस्तक है। ईसाइयों के अनुसार उनका धर्म वह है जो ईसामसीह ने बताया और बाइबिल में लिखा है, और मुसलमानों के अनुसार उनका मज़हब वह है जिसका ज्ञान हज़रत मुहम्मद को ख़ुदा ने दिया और जो पवित्र कुरान में लिखा गया है। इसके विपरीत भारतीय परंपरा में धर्म का कोई एक प्रवर्तक नहीं है और न उसकी सारी बातें किसी एक पुस्तक में सीमित हैं। भारत में धर्म पर अनेक विचारकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अपने-अपने विचार रखे हैं जिनमें बहुत-से सामान्य तत्त्व है, पर ब्यौरों को लेकर मतभेद भी है।
· संसार के सभी धर्म अपनी-अपनी दृष्टि से निम्नलिखित बातों के लिए प्रयास करते हैं और ये बातें हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म में काफ़ी हद तक समान रूप से पाई जाती हैं—
· मनुष्य को अपने समाज के साथ सामंजस्य के साथ मिलकर रहना है। ईसाइयत और इस्लाम में अपने-अपने संप्रदाय के लोगों के साथ मेलजोल से रहने पर अधिक बल है, पर उनका अंतिम उद्देश्य भी किसी न किसी प्रकार संसार में शांति स्थापित करना है। अवश्य ही ईसाई यह मानते हैं कि संसार में शांति तभी आएगी जब सभी लोग ईसामसीह को ईश्वर का एकमात्र पुत्र और मनुष्य जाति का एकमात्र उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार कर लेंगे। हमारे मुस्लिम मित्र अवश्य ही ऐसी ही बात अपने पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद साहब के लिए कहते हैं।
· मनुष्य-समाज में शांति आ सके इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य का मन शांत हो, वह अपने क्षुद्र अहंकार से ऊपर उठे और एक विशाल दृष्टि अपनाकर अपना जीवन जिए। इसके लिए कुछ साधन बताए गए है जिनमें से प्रमुख हैं ईश्वर का ध्यान करना और उसकी उपासना करना, शारीरिक और वाचिक पवित्रता, दान देना, उपवास रखना, पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करना, मौन रखना, तीर्थयात्रा करना, कुछ पर्वों का मनाना, बच्चों को कुछ धार्मिक संस्कार देना, आदि। देश-काल के अनुसार इन बातों के ब्यौरों में अंतर हो सकता है पर उनका सामान्य उद्देश्य स्पष्ट है। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म, ईसाइयत और इस्लाम में उपवास के दिन और उनके कारण अलग-अलग हैं पर उनका सामान्य उद्देश्य एक है ऱ तन और मन को शुद्ध करना। इसी प्रकार विभिन्न धर्मों के तीर्थस्थान भिन्न-भिन्न होते हुए भी तीर्थयात्रा का उद्देश्य एक ही है ऱ रोज़मर्रा की घरगृहस्थी के जंजाल के कुछ समय के लिए दूर होकर आंतरिक शांति पाना और अपने से ऊपर की किसा सत्ता से जुड़कर जीवन के प्रति एक विशाल दृष्टि अपनाना।
पर यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य हैं। ईसाइयत और इस्लाम के तीर्थस्थान व्यक्तिकेंद्रित हैं। ये वे स्थान हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्मसंस्थापक से जोड़ते हैं। इसके विपरीत, हिन्दू धर्म के तीर्थस्थान मुख्यतया मनुष्य को प्रकृति की विशालता, शांति और सौन्दर्य के साथ जोड़ते हैं। गंगोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, ऋषिकेश, हरिद्वार, वाराणसी, प्रयाग, जगन्नाथ पुरी, कन्याकुमारी, द्वारका आदि तीर्थस्थान मनुष्यों के मन को कुछ समय के लिए सांसारिक जीवन से हटाकर पर्वत, नदियाँ, सरोवर और समुद्र जैसे प्रकृति के मनोरम और शांत स्थानों की ओर मोड़ते हैं। बाद में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, और गुरु नानक धार्मिक महुपुरुषों के जीवन से जुड़े स्थानों को भी तीर्थ माना जाने लगा पर प्राचीन काल से भारतीय मान्यता के अनुसार तीर्थ वह स्थान है जहाँ जाकर मनुष्य इस भवसागर को पार उतरने के लिए कुछ शक्ति प्राप्त करता है, और ऐसा करना प्रकृति के सांन्निध्य में जाकर अधिक अच्छी तरह हो सकता है। (तीर्थ और और तरना या तारना के मूल में एक ही तृ धातु है।)
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब पंथनिरपेक्षता की बात की जाती है तो उसका आशय केवल हिन्दू, इस्लाम और ईसाइयत आदि धर्मों को पंथ मानने से नहीं होता। भारत में सदा अनेक पंथ रहे हैं। हिन्दू धर्म में ही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि संप्रदाय रहे हैं और अब भी हैं। बोद्ध, जैन और सिख धर्म को पहले पंथ के रूप में ही मान्यता मिली थी। हमारे सामने ही साईं बाबा, सत्य साईं बाबा, यहाँ तक कि रामकृष्ण परमहंस, श्री अरविन्द आदि को लेकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने पंथ बना लिए हैं। जैसा कि स्वामी विवेकानंद इस अंक में अन्यत्र कह रहें है, क्योंकि मनुष्यों का स्वभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का है इसलिए उन्हें अंतिम सत्य तक पहुँचने के लिए अलग-अलग मार्गों की आवश्यकता पड़ेगी। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।
आज हिन्दुत्व शब्द भारतीय राजनीति के केन्द्र में आ गया है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय हिन्दुत्व शब्द आंदोलन के केन्द्र में नहीं था। हिन्दू महासभा जैसे राजनैतिक दल थे पर उन्हें कभी भी हिन्दू जनता का बड़ा समर्थन नहीं मिला। इसका मुख्य कारण यह था स्वतंत्रता का संग्राम जिन आदर्शों को लेकर लड़ा जा रहा था वे सभी हिन्दू आदर्शों से मेल खाते थे। यह सही है कि हिन्दुओं के मन में शताब्दियों की गुलामी से अपने आपको मुक्त कर देश को स्वतंत्र करने की प्रबल इच्छा थी, पर हिन्दुओं ने कभी यह नहीं चाहा कि भारत के सभी लोग हिन्दू धर्म मानने लगें या फिर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता मिले।
पर स्वतंत्रता के बाद गणतंत्र और वोटबैंक की राजनीति होने लगी है, इस कारण हिन्दू भी अपने आपको मुसलमान या ईसाइयों से अलग कर एक राजनैतिक समाज के रूप में देखने लगा है। वर्तमान राजनेतिक परिदृश्य को देखते हुए इस प्रवृत्ति से निकट भविष्य में छुटकारा पाना कठिन है। जब तक कुछ भारतीयों के चिन्तन में गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय आदि की मूल समस्याओँ के स्थान पर धर्म केन्द्र में रहेगा तब तक आम लोगों की धार्मिक भावनाओं को उभाड़ा जाता रहेगा।
पिछले दिनों विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने बड़े दुःख के साथ एक दैनिक में लिखा,
संसार में टकराव और अपराध बढ़ रहे हैं और मनुष्यों के मन और हृदय में एकता लाना दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है। . . . अब जबकि सामाजिक कार्यकर्ता, धार्मिक नेता और आध्यात्मिक मार्गदर्शकों के प्रयत्नों से कुछ आशा की किरण दिखाई देने लगी थी, केन्द्रीय सरकार का 200 मुस्लिम बहुसंख्यावाले गाँवों को चुनकर उन्हें विकास में प्राथमिकता देने का कथित निर्णय सेकुलर दृष्टिवाले सामाजिक और आध्यात्मिक कार्यकर्ताओं के काम को बहुत कठिन बना देगा। यह नहीं समझ में आता कि इस नीति के बनानेवालों ने इसके दुष्परिणामों के बारे में क्यों नहीं सोचा। यह नीति गांधी जी के सिद्धांतों को दफ़न करने जैसी होगी और इससे देश में सांप्रदायिक गुटों के बनने को बढ़ावा मिलेगा। (इंडियन एक्सप्रेस 12 मार्च 2007)
श्री श्री रविशंकर आध्यात्मिक नेता है और उनके शिष्य संसार के अधिकतर देशों में हैं। इन शिष्यों में पाकिस्तानसहित मुस्लिम देशों के लोग भी शामिल हैं। रविशंकर जी को किसी भी अर्थ में कट्टर हिन्दुत्ववादी नहीं कहा जा सकता यद्यपि जो शिक्षा वह देते हैं वह पूरी तरह हिन्दू धर्म की परंपरा पर आधारित है। क्या केंद्रीय सरकार के नेता उनकी पीड़ा को समझेंगेय़
पीछे समाचार आया कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेताओं ने स्वामी रामदेव के योग के एक कार्यक्रम का विरोध किया जबकि कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार के तत्त्वावधान में निर्मित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में योग प्रमुख स्थान दिया गया था और वर्तमान सरकार की ओर निर्मित एक समिति ने योग को विद्यालयों में अनिवार्य रूप से स्थान देने की संस्तुति की है। स्वामी रामदेव की शिक्षाएँ पूरी तरह सेकुलर हैं क्यों कि वे किसी भी व्यक्ति के द्वारा बिना किसी विचारधारा से अपने आपको बाँधे स्वीकार की जा सकती हैं। सभी धर्मों की ऐसी बातों के जो सर्वचनहितकारी हों खुले दिल से स्वीकार किया जाना चाहिए। केवल इसी प्रकार हम धीरे-धीरे एक विश्वधर्म की ओर बढ़ सकेंगे जो हमें सबी संकीर्णताओँ से ऊपर उठाकर मनुष्य को मनुष्य के साथ और मनुष्य को परमात्मा के साथ जोड़ने में सहायक हो सकेगा।
धर्म शब्द को भारतीय चिन्तन से अलग नहीं किया जा सकता । न केवल इस लिए कि यह शब्द इतना प्राचीन और व्यापक होने के कारण भारतीय चेतना में बहुत गहराई से प्रवेश कर गया है अपितु इसलिए भी कि संसार की किसी भाषा में इसका अनुवाद नहीं किया जा सकता। धर्म शब्द को धर्म के रूप में ही रखते हुए हमें धर्म वास्तव में क्या है इसे समझने का प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न-चर्चा

(पत्रिका के इस भाग में हम उन प्रश्नों को आपके सामने रख रहे हैं जो समय-समय पर हमारे सामने आते रहे हैं। ये प्रश्न संसार के अनेक देशों में उठाए गए हैं और इनका संबंध संसार के सभी मनुष्यों से है। आप भी अपने प्रश्न हमें भेज सकते हैं, साथ भी प्रश्नों के संबंध में अपनी टिप्पणी भी कर सकते हैं।
हम ध्यान दिलाएँ कि इन प्रश्नों का संबंध अधिकतर मनुष्य के आंतरिक जीवन से है जहाँ शब्दों का निश्चित अर्थ नहीं होता। इसलिए आंतरिक जीवन के संबंध में न तो प्रश्नों का स्वरूप निश्चित होता है और न उनके निश्चित उत्तर हो सकते हैं। आत्मा, परमात्मा, धर्म, सुख, शांति, पुण्य, पाप, मुक्ति, यहाँ तक कि शिक्षा आदि शब्दों का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। अनिश्चित अर्थवाले प्रश्नों पर केवल टिप्पणी ही की जा सकती है उनके निश्चित उत्तर देना असंभव है। पर यह चर्चा आवश्यक है ताकि हम सभी अपनी समस्याओँ के बारे में सोचें और उनके बारे में स्वाध्याय, चिन्तन और विचार-विनिमय करें। प्राचीन उक्ति है—वादे वादे जायते तत्त्वबोधः—संवाद करते रहने से तत्त्व का ज्ञान हो सकता है। आप भी इस चर्चा में भाग लें।)
प्रश्न—मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या हैय़
टिप्पणी—यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह अपने जीवन में कहाँ तक पहुँचना चाहता है। कुछ मनुष्य अधिक से अधिक धन कमाने को ही अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं तो कुछ अधिक से अधिक यश पाने को। कुछ को शांति की तलाश रहती है तो कुछ को ज्ञान की। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि मनुष्य जो कुछ भी करता है उससे सुख पाना चाहता है। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य के जीवन का चरम लक्ष्य वह होगा जहाँ उसे ऐसे सुख की प्राप्ति हो जिसके बाद पाने को कुछ शेष न रहे। गीता (6-22) कहती है कि योग की अवस्था में मनुष्य को ऐसे सुख की प्राप्ति होती है। यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः—जिसे पाकर मनुष्य उससे बड़े किसी सुख को न चाहे (वह योग की अवस्था है)। पिछले अंक में हमने देखा कि एल्डस हक्सले के अनुसार ‘‘इस पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का केवल एक ही लक्ष्य है कि वह अपनी शाश्वत आत्मा के साथ अपने को एकाकार करे ओर इस सृष्टि के दिव्य आधार के साथ अपनी एकात्मता को पहचाने’’। ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘‘एक ही लक्ष्य’’। हक्सले के अनुसार मनुष्य जीवन में भले ही कुछ भी हासिल कर ले, जब तक वह अपनी शाश्वत आत्मा को जानकर उसके साथ अपने को एकाकार नहीं कर लेता तब तक उसे अपने जीवन में अपूर्णता का अनुभव होता रहेगा। प्रसिद्ध बीटल गायक जॉर्ज हैरिसन ने कहा था, ‘‘जीवन में सबकुछ को बाद के लिए छोड़ा जा सकता है, पर परमात्मा की तलाश को नहीं। (Everything else can wait but the search for God cannot wait.) और जॉर्ज हैरिसन धन और नाम की दृष्टि से अपने समय के सबसे सफल व्यक्तियों में से एक था।
प्र.—क्या परमात्मा को पाना सभी मनुष्यों के लिए वास्तव में आवश्यक हैय़
टि.--नहीं, सबके लिए आवश्यक नहीं है, पर उनके लिए अवश्य आवश्यक है जो अपने जीवन में चरम शांति और चरम सुख को पाना चाहते हैं।
प्र.--पर संसार के लाखों मनुष्य बिना परमात्मा को पाए सुखी जीवन बिता रहे हैं।
टि.—यह केवल ऊपर से प्रतीत होता है। आप उन मनुष्यों के अंदर जाकर देखेंगे तो प्रत्येक के अंदर वे ही चिन्ताएँ, भय और आशंकाएँ आपको मिलेंगी। जब तक मनुष्य अपने सुख और शांति को अपने अंदर नहीं पा लेता तब तक वह अशांति के सागर में ही थपेड़े खाता रहेगा। और यह स्थायी शांति और सुख अपने अंदर स्थित परमात्मा को पाकर ही मिल सकता है।
प्र. इसका तात्पर्य हुआ कि नास्तिक लोगों के लिए चरम शांति और चरम सुख पाने की कोई संभावना नहीं है।
टि. ऐसा नहीं है। मनुष्य को अपनी शांति और सुख के लिए अपने अंदर जाना है। वहाँ विद्यमान शांत चैतन्य में उसका अपना स्वरूप है। पर वहाँ जाने के लिए उसे निरंतर विचारों में डूबे रहनेवाले अपने मन को शांत करना है। यह काम बिना परमात्मा को माने भी हो सकता है। बहुत बार परमात्मा को माननेवाले लोग परमात्मा के बारे में बेकार बहस करके अपने मन को और अशांत कर लेते हैं। भारतीय परंपरा का ईश्वर मानने का विषय नहीं अपितु जानने का विषय है। जब आप परमात्मा को जान लेते हैं तो आपको पता लग जाता है कि परमात्मा के बारे शब्दों में की गई सारी बहस व्यर्थ है। अपने अंदर के शांत सत्य को पाने के बाद आप उसे कुछ भी नाम दे सकते हैं। यदि आपने वास्तव में अंतिम सत्य को अपने अंदर पा लिया है तो आप उसे किस नाम से पुकारते हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
प्र. मैं परमात्मा को पाना चाहता हूँ। इसके लिए क्या करूँय़
टि. परमात्मा को पाने का केवल एक उपाय है—अपने मन को इतना शांत करना कि उसमें कोई शब्द और कोई बिंब न पैदा हों। भारतीय परंपरा में परमात्मा की बहुत ही स्पष्ट और सरल परिभाषा है—भाषातीत चैतन्य परमात्मा है। जब आपकी चेतना में कोई शब्द नहीं उठ रहा होता उस समय आप परमात्मा के साथ एकाकार होते हैं।
प्र. और शेष समयय़
टि. शेष समय भी आप परमात्मा के साथ ही एकरूप हैं, पर आपके विचार आपके अंदर आपके अलग होने की भ्रांति पैदा करते रहते हैं। छोटे शिशुओं की चेतना इसलिए परमात्मा के साथ एकाकार होती है। पर धीरे-धीरे उनके माता-पिता और उनका समाज और उनका धर्म उन्हें बताने लगता है कि वे कौन हैं। अलगाव के ये संस्कार शिक्षा और राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक जीवन में दिनोंदिन और गहरे होते जाते हैं। आप अपने बारे में वह मानने लगते हैं जो आपको औरों के द्वारा आपके बारे में आपके बताया गया है। औरों की राय से अलग आप अपने आप वास्तव में क्या हैं इसके बारे में सोचने-जानने का अवसर ही नहीं मिलता।
प्र. पर मैं अपने बारे में कुछ तो जानता हूँ कि मैं क्या हूँ।
टि. आप क्या हैं, इस प्रश्न का उत्तर आप क्या कह कर देंगेय़ आप अपने बारे वह कहेंगे जो उस समय आपके मन में उठनेवाले विचार आपको आपके बारे में बताएँगे। उदाहरण के लिए किसी के पूछने पर कि आप कौन हैं, आप कह सकते हैं—मेरा नाम यह है, मैं इस स्थान पर रहता हूँ, मेरा धर्म यह है, मैंने इस-इस तरह की शिक्षा प्राप्त की है और इस-इस तरह के काम किए हैं, यह मेरी पत्नी और ये मेरे बच्चे हैं, वे लोग मेरे मित्र हैं और वे दूसरे लोग मेरे विरोधी, आदि-आदि। आपने मैं क्या हूँ, इस बात का उत्तर किस आधार पर दियाय़ केवल उन्हीं विचारों के आधार पर ही तो जो आपके मनमें उस समय उठे। पर आपने अपने बारे में जितनी भी बातें बताईं उनमें हर एक के प्रति आप हर समय सचेत नहीं होते। एक डाक्टर केवल तभी डाक्टर होता है जब वह रोगियों को देख रहा होता है, अन्य किसी समय वह खिलाड़ी, गायक, पिता या स्वयं रोगी भी हो सकता है। वह निश्चित रूप से स्वयं भी नहीं जानता कि वह वास्तव में क्या है। आप बिलकुल अभी स्वयं अपने बारे में बताने का प्रयास कीजिए कि आप कौन या क्या हैं, और आपको तुरंत यह स्पष्ट हो जाएगा कि आप अपने बारे में वहीं कहते हैं जो आपके विचार किसी समय आपको आपके बारे में बताते हैं। विचारों के परे आप क्या हैं, यह जानना विचारों को पूरी तरह शांत करके ही हो सकता है।
प्र. पर मैं अपने सच्चे स्वरूप के बारे में जानना चाहता हूँ।
टि. पतंजलि के योग-दर्शन के प्रारंभ के सूत्र हैं—योगः चित्तवृत्ति निरोधः (चित्त की हलचल को रोकने का नाम योग है), तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम् (तब द्रष्टा मनुष्य अपने स्वरूप में स्थित होता है, वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र ( शेष समय वह अपने चित्त की वृत्तियों के साथ एकाकार करके अपने आपको देखता है।)। ये तीन सूत्र बहुत ही स्पष्ट रूप में मनुष्य के जीवन के स्वरूप और उसकी दिशा और उसके लक्ष्य का संकेत करते हैं। आप अपने सच्चे स्वरूप को जान सकते हैं बशर्ते आप अपने चित्त की हलचल को सर्वथा शांत कर सकें। हमारा बोलना और सोचना चित्त की ऐसी हलचल है जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है। अपने अंदर शब्दों में उठनेवाले विचारों को शांत कर आप अपने सच्चे स्वरूप को जान सकते हैं।
पतंजलि ने इसलिए योग का अंतिम लक्ष्य समाधि बताया है। योगसूत्र (1.47) वे कहते हैं निर्विचार-वैशारद्ये अध्यात्म-प्रसादः। (जब मनुष्य निर्वचार समाधि की अवस्था में पहुँचता तब उसे अपने निर्मल स्वरूप का ज्ञान होता है)।
प्र. पर अपना सामाजिक ज़िम्मदारियों को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए आंतरिक शांति की तलाश करना पलायनवाद नहीं हैय़
टि. जब आपका मन शांत होता है तब आप अपने कर्तव्य को स्पष्टता से समझ सकते हैं और उससे अनुसार कार्य कर सकते हैं। शेष समय वास्तव में सामाजिक राजनैतिक कार्य करते हुए अधिकतर अपने आप से भाग रहे होते हैं। पर आप दुनिया में सबकुछ से पीछा छुड़ा सकते हैं अपने आप से नहीं। अशांत मन के द्वारा किए गए कार्य से समस्याएँ सुलझने के बजाय उलझती ही अधिक हैं। गाधी जी की प्रार्थनासभा में प्रतिदिन गीता के ‘स्थितप्रज्ञ’ से संबंधित श्लोकों का पाठ होता था। स्थितप्रज्ञ उस व्यक्ति को कहते हैं जिसका मन पूरी तरह शांत हो। और आप मानेंगे कि गांधी जी के मार्गदर्शन में देश की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं पर जितना गंभीर चिन्तन और व्यावहारिक काम हुआ वैसा बाद के नेताओं द्वारा नहीं किया जा सका।

ऋग्वेद के अनुसार भाषा की चार अवस्थाएँ

अनिल विद्यालंकार
आम तौर से माना जाता है कि भाषा अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्त करने का एक साधन है। विद्यालयों में बच्चों को भाषा की यही परिभाषा पढ़ाई जाती है। इसे हम भाषा के साधनरूप की परिभाषा कह सकते हैं। मोटे तौर पर देखने पर यह परिभाषा सही भी लगती है। हम अपने विचार व्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ हम जानते हैं उनमें से किसी का भी प्रयोग कर सकते है, वैसे ही कि जैसे यदि हमारे पास चार पैन हैं तो आवश्यकतानुसार हम उनमें से किसी को भी काम में ला सकते हैं, या फिर पैन के स्थान पर पैंसिल का प्रयोग कर सकते हैं।
भाषा की इस साधनरूप परिभाषा पर कुछ विस्तार से विचार करना वांछनीय है। साधन उस चीज़ को कहते हैं जिसका प्रयोग साधक अपने कार्य की सिद्धि के लिए करता है। साधन के ऊपर साधक का नियंत्रण रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो साधक और साधन का संबंध खंडित या दूषित माना जाएगा। उदाहरण के लिए, हम यह नहीं कह सकते कि बादल मनुष्यों के लिए वर्षा के साधन हैं या किसी मनुष्य का हृदय उसके लिए अपने रक्त को प्रवाहित करने का साधन है। बादल और हृदय की गति पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए इन्हें मनुष्य के लिए साधन नहीं कहा जा सकता।
फिर हम देखते हैं कि उच्चरित भाषा का प्रयोग भी सर्वदा विचारों के आदान-प्रदान के लिए ही होता हो ऐसी बात नहीं है। माँ अपने नवजात शिशु से कितनी-कितनी बातें करती हैं, यह जानते हुए भी कि बच्चा कुछ भी नहीं समझ रहा होता। सोते हुए बहुत-से लोग अपनी भाषा में बड़बड़ाते हैं जबकि बाह्य रूप से कोई श्रोता नहीं होता। अंतर्मुख प्रवृत्ति के बहुत-से लोगों को राह चलते अपने-आप से बातें करते हुए देखा जा सकता है। संसार में करोड़ों आस्तिक अपनी भाषा में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं जिसका प्रयोग अवश्य ही ईश्वर के साथ विचारों के आदान-प्रदान के लिए नहीं होता। नास्तिकों के लिए तो भाषा का यह प्रयोग सर्वथा निरर्थक ही है।
आंतरिक भाषा
साधनरूपी कसौटी को यदि भाषा पर लागू करें तो हम देखेंगे कि भाषा मनुष्य के लिए ऐसा साधन नहीं है जिस पर उसका पूर्ण नियंत्रण हो। यह ठीक है कि वक्ता के मुख से जो शब्द बाहर आते हैं उन पर उसका प्रकट रूप से कुछ नियंत्रण प्रतीत होता है (यद्यपि सभी वक्ताओं के लिए सभी समय यह बात नहीं कही जा सकती)। किन्तु मुख से बाहर आने वाली भाषा ही मनुष्य की भाषा का एकमात्र रूप नहीं है। थोड़ा-सा भी अंतर्मुख होकर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि हमारे मस्तिष्क में विचारों के रूप में निरंतर भाषा उत्पन्न होती रहती है। यह आंतरिक भाषा भी उतने ही स्पष्ट रूप में भाषा है जितने कि मुखोच्चरित ध्वनियों के माध्यम से बाहर आनेवाली भाषा। भारतीय चिन्तन में मुखोच्चरित भाषा को वैखरी और मनोगत भाषा को मध्यमा कहा गया है। चिन्तक यदि चाहे तो अपने अन्दर उत्पन्न होनेवाली मध्यमा भाषा के शब्द और वाक्यों को अलग-अलग देख सकता है। वैखरी भाषा की और मध्यमा भाषा की शब्दावली वही रहती है। कोई भी चिन्तक आसानी से जान सकता है कि वह कब किस भाषा में सोच रहा है। इस प्रकार हमारे अन्दर निरंतर भाषा पैदा होती रहती है। जब वह मुख से बाहर आती है तब उसके माध्यम से श्रोताओं तक हमारे विचार पहुँचते हैं। इस अवस्था में उसका नाम वैखरी होता है। शेष समय में यह मध्यमा के रूप में हमारे मस्तिष्क में तरंगायित होती रहती है।
यदि हम अपने अन्दर देखें तो ज्ञात होगा कि मध्यमा भाषा पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। हम चाहें तो भी आसानी से अपने विचार-प्रवाह को रोक नहीं सकते। ऐसा नहीं है कि हम जब चाहें तब अपने अन्दर भाषा को उत्पन्न होने दें और जब चाहें तब उसे सर्वथा रोक दें। हम स्वयं नहीं जानते कि हमारे मन में निरन्तर उत्पन्न होनेवाली भाषा कहाँ से आती है, यद्यपि हम उसे प्रतिक्षण अपने अन्दर उठता हुआ पाते हैं।
यदि इस दृष्टि से विचार करें तो हम देखेंगे कि भाषा की साधनरूपी परिभाषा बहुत ही अपर्याप्त है। ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने पर ज्ञात होगा कि आधुनिक शिक्षित मनुष्य की अधिकांश भाषा का प्रयोग उसके अन्दर ही होता है। हम मध्यमा के माध्यम से जितना सोचते हैं उसका एक प्रतिशत भी वैखरी (उच्चरित भाषा) के माध्यम से नहीं बोलते। भाषा की परिभाषा इस प्रकार की होनी चाहिए कि उसकी व्याप्ति भाषा के सभी रूपों तक हो।
वैदिक ऋषियों की भाषाविषयक खोज
पश्चिम में भाषा को केवल साधन के रूप में ही देखा जाता रहा है इसलिए ग्रीक चिन्तन से लेकर अबतक भाषा के माध्यम से बहुत सोचा गया है पर स्वयं भाषा के बारे में गहरा और व्यापक चिन्तन नहीं हुआ है। वास्तव में भाषा के साधन रूप से हटकर भाषा को अध्ययन के विषय के रूप में देखना पश्चिम में केवल 200 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हुआ जब विलियम जेम्स जैसे विद्वानों के माध्यम से पश्चिम का परिचय संस्कृत और फिर पाणिनि के व्याकरण से हुआ। पर आधुनिक पाश्चात्य भाषाविज्ञान का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पश्चिम के भाषावैज्ञानिक अभी भी भाषा के बाहरी रूप का विश्लेषण करने में ही लगे हुऐ हैं जिसमें बहुत गहरा जाने की गुंजाइश नहीं है। इसीलिए अमेरिका के विश्वप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोएम चॉम्स्की ने लगभग दो दशक से अधिक समय तक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में नेतृत्व करने के बाद उस शास्त्र की सीमा को समझकर तीन दशक पूर्व भाषाविज्ञान से किनारा कर लिया। आज चॉम्स्की को विश्व के सबसे अधिक प्रभावशाली विचारकों में गिना जाता है पर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में नहीं अपितु सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं के क्षेत्र में।
पाश्चात्य परंपरा के विपरीत, वेदिक काल में ही भाषा के संबंध में गंभीर चिन्तन पारंभ हो गया था। वैदिक ऋषियों ने जान लिया था कि मनु्ष्य की भाषा का स्रोत मनुष्य के परे की किसी शक्ति में है। इसलिए उन्होंने भाषा के मूल स्रोत तक जाने का प्रयास किया और गहरी साधना के बाद उसमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने पाया कि मनुष्य की उच्चरित भाषा ही भाषा का एकमात्र रूप नहीं है। वे ऋषि भाषा के गहरे से गहरे स्तर तक गये और उन्होंने देखा कि भाषा की वास्तव में विभिन्न अवस्थाएँ है जिनमें से मनुष्य के मुख से बाहर आनेवाली भाषा उसका केवल एक रूप है। वेद में भाषा के सबी रूपों को मिलाकर वाक् कहा गया है। ऋग्वेद के निम्नलिखित मंत्र में वाक् की चार अवस्थाओं का स्पष्ट वर्णन हैः
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।। (ऋग्वेद. 1-164-45) (य़य़)
(वाक् की चार सुनिश्चित अवस्थाएँ हैं जिन्हें मनीषी ब्राह्मण ही जानते हैं। इनमें से तीन अवस्थाएँ मनुष्य के अंदर की गुफा में निहित हैं। मनुष्य चौथी अवस्था की भाषा को ही बोलते हैं।)
वैदिक काल में भाषा की इन चार अवस्थाओं के अलग-अलग स्पष्ट नाम नहीं मिलते पर बाद के समय में भाषा की चार अवस्थाओं पर अनेक प्रसंगों में विचार हुआ है। और यह विचार केवल व्याकरण या भाषाविज्ञान के प्रसंग में ही नहीं हुआ अपितु दर्शन और आध्यात्मिक साधना के पक्ष में इसमें शामिल किए गए हैं, और ऐसा करने का एक बहुत ठोस आधार है।
वाक् की अवस्थाओं की वैचारिक पृष्ठभूमि
भाषा की प्रक्रिया के मूल स्वरूप को जानना किसी भी बौद्धिक कार्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमारे सामाजिक और शैक्षिक जीवन और शिक्षा के मूल में भाषा ही काम कर रही है इसलिए भाषा पर विचार किये बिना उसके द्वारा कोई कार्य करना ऐसा ही है जैसे टेलीस्कोप या माइक्रोस्कोप की जाँच किये बिना इन यंत्रों के द्वारा ज्योतिर्विद्या और प्राणिशास्त्र का अध्ययन। यदि भाषा हमारे लिए साधन है तो किसी भी बौद्धिक कार्य को वैज्ञानिक ढंग से करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम प्रयोग से पूर्व अपने इस साधन की जाँच कर लें।
भाषा के बारे में गहरी खोज प्रारंभ करते ही जो बात सबसे पहले ध्यान में आती है वह यह है कि मनुष्य की भाषा सदा ही उसके साथ रहती हैऱ न केवल उसकी वाणी में अपितु उसके विचारों और स्वप्नों में भी। भाषा मनुष्य को अपने से इतनी अविभाज्य मालूम देती है कि देकार्त जैसे महान् दार्शनिक ने अपना अस्तित्व ही अपने चिन्तन की प्रक्रिया के आधार पर सिद्ध किया (Cogito ergo sum– मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ)। भारतीय परम्परा में भी कहा गया है कि चिन्तन करने वाला प्राणी ही मनुष्य हैऱ (मनुते इति मनुष्यः)।
इस प्रकार विचार करने पर भाषा हमारे मस्तिष्क के अन्दर उत्पन्न होने वाले शब्दों की एक अविच्छिन्न धारा प्रतीत होती है। ये शब्द प्रायः बोली और लेखन के रूप में बाहर निकलते हैं, लेकिन शिक्षा और सभ्यता के विकास के साथ, हमारे शब्द अधिकतर आंतरिक भाषा या विचारों के रूप में हमारे अन्दर ही तरगांयित होते रहते हैं। यह स्वाभाविक है कि विद्वानों ने इस बात के बारे में अनुमान लगाने की कोशिश की है कि भाषा की इस रहस्यमय प्रक्रिया का प्रादुर्भाव कैसे हुआ। पश्चिम के विद्वानों ने भाषा की उत्पत्ति के बारे में अनेक सिद्धान्त स्थापित किए गए हैं किन्तु वे भाषा के मूल स्रोत को अभी तक जान नहीं सके हैं। फिर भी एक बात तो निश्चित है कि भाषा यदि शब्दों की धारा है तो अन्य सभी धाराओं के समान इसका न केवल कोई आदि होना चाहिए अपितु एक अन्त भी होना चाहिए। और यदि हम किसी कारण से इसके स्रोत का पता नहीं लगा सकते तो भी हम यह जानने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही कि भाषा के इस प्रवाह का अन्त कहाँ होता है।
इस प्रकार भाषा को उसके समग्र रूप में, आदि से अंत तक, देखने के प्रयत्न ने ही प्राचीन भारतीय चिन्तन में भाषा की चार अवस्थाओं की खोज को प्रेरित किया। उस विचार-सरणि को एक बार समझने का प्रयत्न करना आज भी उपयोगी और आवश्यक है।
प्रक्रिया के रूप में भाषा
यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि भाषा कोई वस्तु नहीं है, वरन् एक प्रक्रिया है। किसी भाषा की सत्ता उसके बोलनेवालों से अलग नहीं रहती। संगीत भी एक प्रक्रिया है। किसी प्रक्रिया को हम उस प्रक्रिया के साथ समय के आयाम में बहकर ही समझ और जान सकते हैं। इस तरह किसी भाषा को उसके बोलनेवालों के साथ लंबे समय तक रहकर ही जाना और समझा जा सकता है।
इसी बात को दूसरे रूप में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रत्येक भाषा के विषय में कोई कथन वस्तुतः उस भाषा के बोलनेवालों पर लागू होता है। जब हम कहते हैं कि हिन्दी में दंत्य ध्वनियाँ हैं जो कि अंग्रेज़ी में नहीं हैं तो हमारा तात्पर्य केवल यही होता है कि हिन्दीभाषी अपने बोलने की प्रक्रिया में कभी-कभी जीभ को दाँतों से छुआकर कुछ विशेष ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं जबकि अंग्रेज़ीभाषी ऐसा नहीं करते। हिन्दीभाषी स्वरों का उच्चारण करते हुए किन्हीं स्थितियों में अपने नासिका-विवर को खुला रखते हैं। इन स्वरों को अनुनासिक स्वर कहते हैं। जब हम कहते हैं कि फ्रैंच में भी अनुनासिक स्वर हैं तो हमारा आशय यही होता है कि हिन्दी-भाषियों की तरह फ्रैंच-भाषी भी स्वरों का उच्चारण करते हुए कभी नासिका-विवर को खुला रखते हैं और कभी नहीं। हिन्दी की सत्ता हिन्दी-भाषियों के वाचिक और मानसिक व्यवहार से भिन्न नहीं है। स्पष्ट ही किसी भाषा की ध्वनियों या व्याकरण के संबंध में प्रत्येक कथन उस भाषा के बोलने वालों पर लागू होता है।
इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि प्रत्येक भाषा के वैखरी और मध्यमा दो रूप हो सकते हैं तो हमारा आशय यही होता है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी चेतनावस्था में या तो ऐसी स्थिति में होता है जबकि भाषा उसके मुख से बाहर आ रही होती है या ऐसी स्थिति में कि भाषा उसके मन में विचारों के रूप में उठ रही होती है। यह कथन संसार के सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू किया जा सकता है। हमारे अंदर से निरंतर भाषा निस्तृत होती रहती है, केवल सुषुप्ति और समाधि की अवस्थाओं को छोड़कर। इस प्रकार वाक् या भाषा मनुष्य की चेतना से ऊपर की किसी शक्ति की परिणति है जो बहुधा मनुष्य के न चाहने के बावजूद उसके मन में पैदा होती रहती है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में इसलिए प्रायः मनुष्य को वाक् का कर्ता नहीं माना गया अपितु वाक् का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस वाक्-शक्ति के प्रकट होने के लिए मनुष्य का मस्तिष्क केवल आधार का काम करता है।
प्रसिद्ध भाषादार्शनिक भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की टीका में एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहा हैः
वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति वागेवार्थं निहितं सन्तनोति।
(वाक् ही अर्थ को देखती है, वाक् ही स्वयं बोलती है और वाक् ही स्वयं शब्दों में निहित अर्थ का विस्तार करती है।)
इस पंक्ति से स्पष्ट है कि भर्तृहरि और उनके पूर्ववर्ती आचार्य वाक् का स्वायत्त अस्तित्व स्वीकार करते हैं। वे इसे पूर्णतया मानव-सापेक्ष नहीं मानते।
वैखरी (भाषा चौथी अवस्था) की परिभाषा
प्राचीन मनीषियों ने भाषा के वैखरी रूप की परिभाषा इस प्रकार की हैः
स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा।
वैखरी वाक् प्रयोक्तॄणां प्राणवृत्तिनिबंधना।।
(वैखरी भाषा विभिन्न उच्चारण-स्थानों में वायु के अवरोध से उत्पन्न होती है। इसमें वर्णों की पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है और इसका सीधा संबंध वक्ता की श्वास-प्रक्रिया से होता है।)
इन सभी लक्षणों को हम मुखोच्चरित भाषा पर आसानी से घटा सकते हैं। हमारे बोलते हुए मुख से वायु बाहर निकलती है और मुख के विभिन्न स्थानों पर जीभ के छूने से या स्वरतंत्रियों में कंपन से विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं जो हमारी भाषा के उच्चरित रूप को व्यक्त करती हैं।
मध्यमा (भाषा तीसरी अवस्था ) की परिभाषा
मध्यमा भाषा का लक्षण इस प्रकार बताया गया हैः
मध्यमा केवलं बुद्ध्युपादाना क्रमरुपानुपातिनी।
प्राणवृत्तिम् अतिक्रम्यं मध्यमा वाक् प्रवर्तते।।
भाषा केवल प्रयोक्ता की बुद्धि में रहती है। उसकी आंतरिक ध्वनियों में क्रम रहता है और वह व्यक्ति की श्वास-प्रक्रिया को अतिक्रमण कर जाती है।)
इन लक्षणों को भी हम अपनी मानसिक भाषा पर आसानी से घटा सकते हैं। इनमें विशेष ध्यान देने योग्य एक बात तो मध्यमा भाषा में वैखरी भाषा की ध्वनियों के क्रम का आंतरिक रूप में बने रहना है। हम सभी विचार करते हुए स्पष्ट रूप से यह जान सकते हैं कि हमारी आंतरिक भाषा की ध्वनियाँ भी हमारे मन में उसी क्रम से उठती हैं जिस क्रम से वे मुखोच्चरित वैखरी में बाहर प्रकट होती है। आंतरिक भाषा में भी कर्ता, कर्म, क्रिया आदि उसी क्रम से आते हैं जिस क्रम से कि बाह्य भाषा में। दूसरे शब्दों में, मध्यमा और वैखरी की शब्दावली और व्याकरण एक ही होता है।
मध्यमा के लक्षण में दूसरी विशेष बात उसका श्वास-प्रक्रिया को अतिक्रांत कर जाना है। वैखरी भाषा वक्ता की श्वास-प्रक्रिया से निबद्ध रहती है। अक्षर, शब्द और वाक्यों के उच्चारण में श्वास-प्रक्रिया के योगदान को आसानी से देखा जा सकता है। प्रत्येक शब्द के उच्चारण में वायु हलके-हलके झटकों के साथ बाहर आती है जिससे एक शब्द दूसरे से पूरी तरह मिल नहीं पाता। लंबा वाक्य बोलते हुए हम शब्दों के अंतराल में आवश्यकतानुसार श्वास लेते हैं। प्रायः नया वाक्य प्रारम्भ करने से पहले हम अनजाने में ही नया श्वास भर लेते हैं। किन्तु मध्यमा भाषा का हमारी श्वास-प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं होता। हमारे सोचने की गति बहुत तीव्र होती है। जिस श्वास के दौरान हम वैखरी में एक वाक्य बोल पाते हैं उसके दौरान हम मध्यमा में कई-कई वाक्यों के विचारों में से गुजर जाते हैं। जिस समय हम श्वास अंदर ले रहे होते हैं उस समय हम वैखरी का प्रयोग नहीं कर सकते किन्तु मध्यमा भाषा के माध्यम से हमारा चिन्तन अविराम चलता रहता है चाहे हम श्वास ले रहे हों या छोड़ रहे हों।
भाषा की दूसरी अवस्था ऱ पश्यन्ती
एक बार इस बात को समझ लेने के बाद कि वैखरी और मध्यमा ऐसी दो स्थितियाँ हैं जिनमें से किसी एक में प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क, सुषुप्ति और समाधि की अवस्था को छोड़कर, सारे समय बना रहता है, हम कुछ और आगे बढ़ सकते हैं। प्राचीन भारतीय चिन्तन में भाषा की, अथवा दूसरे शब्दों में उसके प्रयोक्ता मनुष्य की, दो स्थितियाँ और मानी गई हैं ऱ पश्यन्ती और परा। इनमें से पश्यन्ती का लक्षण इस प्रकार दिया गया हैः
अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संयतक्रमा।
स्वरुपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी।।
(भाषा की पश्यन्ती अवस्था में उसकी ध्वनियों में या पदों में कोई क्रम नहीं रहता, इसलिए उसका किसी भी दृष्टि से विभाजन या विश्लेषण संभव नहीं है। पश्यन्ती भाषा की अवस्था में मनुष्य को अपना आंतरिक ज्योतिर्मय स्वरूप उपलब्ध होता है। भाषा का यह सूक्ष्म रूप अविनाशी है।)
ऊपर कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य की चेतनावस्था में उसके मस्तिष्क से या तो वैखरी भाषा उत्पन्न हो रही होती है या मध्यमा। वास्तव में यह कथन अक्षरशः सत्य नहीं है। सामान्य मनुष्य के जीवन में भी कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब वह भाषातीत स्थिति में होता है। कोई भी अद्भुत दृश्य देखकर हम कुछ क्षण अवाक् रह जाते हैं। बहुत सुखद अनुभूति हमें कुछ क्षण के लिए बाह्य और आंतरिक दोनों भाषाओं से मुक्त कर देती है। किन्तु इनके अतिरिक्त एक अन्य स्थिति और भी है जिसमें हम बार-बार वैखरी और मध्यमा भाषा के ऊपर चले जाते हैं वह है ध्यान की स्थिति।
आजकल योग के प्रचार के साथ संसार के सभी देशों में ध्यान में भी रुचि बढ़ रही है और लाखों मनुष्य किसी-किसी रूप में ध्यान का अभ्यास कर रहे हैं। घ्यान सिखाने की अनेक पद्धतियाँ बन गई हैं जिनमें कभी-कभी प्रतिस्पर्धा भी देखने में आती है। पर ध्यान किसी भी प्रकार से किया जाए उसका एकमात्र उद्देश्य है मन को इतना शांत करना कि उसमें शब्द और बिंब न पैदा हों। जिन व्यक्तियों ने ध्यान का अभ्यास किया है वे अनुभव करते हैं कि ध्यान करते हुए कभी-कभी कुछ क्षण के लिए चेतना में ऐसी अवस्था आती है जब अंदर शब्द नहीं उठ रहे होते। यह भाषा की पश्यन्ती अवस्था है। जैसा कि पश्यन्ती शब्द से स्पष्ट है, यह व्यक्ति की वह चेतन स्थिति है जिसमें वह अपने भाषा-प्रवाह को भाषातीत स्थिति से देखता है। और तभी वह अपने चिन्तन से परे हटकर अपने सच्चे आंतरिक शांत स्वरूप को देखना प्रारंभ करता है।
भाषा की पहली अवस्था ऱ परा
भारतीय चिन्तन में पश्यन्ती के परे भी एक स्थिति स्वीकार की गई है जिसे परा कहा गया है। इसमें व्यक्ति स्वभावतः भाषातीत रहता है। वह अपनी इच्छानुसार न केवल वैखरी के परे रह सकता है अपितु उसका चित्त भी इतना शांत होता है कि उसमें मध्यमा का प्रवाह भी नहीं उठता। योग में इसे निर्विकल्पक समाधि की अवस्था कहा गया है। इसमें द्रष्टा को अपने सच्चे स्वरूप का पूर्ण ज्ञान होता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद कोई व्यक्ति न केवल भाषा के अपितु संपूर्ण मानव-जीवन को और उसके साथ ब्रह्मांड के रहस्य को भी जान लेता है। न यह केवल विद्या के क्षेत्र में अपितु साधना के क्षेत्र में भी चरम उपलब्धि है।
वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा इन चारों अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही भाषा या वाक् को उसके समग्र रूप में समझा जा सकता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक भाषाविज्ञान में केवल वैखरी भाषा के अध्ययन पर ही ध्यान दिया जाता है। इसीलिए संसार के हज़ारों भाषा-वैज्ञानिकों द्वारा बड़ी-बड़ी पुस्तकों और पत्रिकाओं में लम्बी लम्बी बहसों के बावजूद भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पा रही है।
पराशक्ति वाक्
वैदिक काल से अब तक भारत में भाषा-विषयक गंभीर चिन्तन की अविछिन्न परंपरा मिलती है। भाषा-प्रवाह के दूसरे छोर पर जाकर जो कुछ उपलब्ध होता है उसका संबंध केवल भाषा से ही नहीं है। भाषातीत स्थिति में ही जाकर यह बोध होता है कि जिस भाषा को हम केवल विचारों के आदान-प्रदान का साधन समझ रहे थे उसका संबंध केवल हमारी बोली और हमारे विचारों से ही नहीं है, अपितु वह हमें हमारी सत्ता के मूल स्रोत से जोड़ती है। हम वहाँ हैं जहाँ हमारा चिन्तन है, और हमारा चिन्तन हमारी भाषा में है। और क्योंकि हमारी भाषा प्रतिक्षण ब्रह्म से आती है इसलिए हम अपनी भाषा के माध्यम से सृष्टि की अंतिम सत्ता से जुड़े हुए हैं। हम इस बात को जानते नहीं हैं क्योंकि हम सदा अपने विचारों, अर्थात् भाषा की दूसरी अवस्था से घिरे रहते हैं। चिन्तन को शांतकर कोई भी परम सत्य को सीधे जान सकता है।
वेद के अनुसार परमात्मा की स्पष्ट परिभाषा दी जा सकती है ऱ भाषातीत चैतन्य परमात्मा है, अर्थात् जब आपका मन इतना शांत हो कि उसमें कोई शब्द उत्पन्न न हो रहा हो तो आप उस अवस्था में परमात्मा के साथ एकाकार होते हैं। इसे आप अपने पर प्रयोग कर देख सकते हैं। इस परिभाषा को जान लेने के बाद प्रश्न यह नहीं रहता कि परमात्मा है कि नहीं, प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य अपने मन को इतना शांत कर सकता है कि उसमें भाषा उत्पन्न न हो। जब तक हम इस अवस्था तक न पहुँच जाएँ तब तक हमें कम से कम अपने अंदर से यह भाव तो निकाल देना चाहिए कि हम भाषा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। क्योंकि जैसा हमने ऊपर देखा है, जो चीज़ मनुष्य के पूरी तरह बस में नहीं है उसे उसका साधन नहीं कहा जा सकता।
हमारी बाह्य और आंतरिक भाषा हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के विनियोग का ही एक रूप है। वैखरी भाषा तो ठीक उसी प्रकार एक मांसपेशीय कार्य है जिस प्रकार कि चलना, कूदना या फावड़ा चलाना। मध्यमा की अवस्था में भी हम वाक्शक्ति की तरंगों को अपने अंदर उठते हुए अनुभव कर सकते हैं। ऊपर हमने देखा है कि भाषा-प्रक्रिया पर हमारा कोई बस नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऊर्जा की ये तरंगे, जो कि भाषा के रूप में प्रकट होती हैं, किसी ऐसे स्रोत से आती हैं जो हमारी व्यष्टि चेतना से परे हैं। अर्थात् हमारे प्रत्येक भाषिक व्यवहार में हमने भिन्न और हमसे बड़ी कोई सत्ता काम कर रही होती है। सच्चाई तो यह है कि जिसे हम अपना आपा या अपना जीवन कहते हैं वह भी भाषारूपी इन ऊर्जा-तरंगों का ही खेल है। परा की अवस्था में न केवल नामरुपात्मक दृष्टि के भेद नहीं रहते अपितु स्वयं ज्ञाता का व्यष्टिपरक रूप भी नहीं रहता। आचार्य भर्तृहरि ने इसीलिए कहा हैः
भेदोद्ग्राहविवर्तेन लब्धाकारपरिग्रहा।
आम्नाता सर्वविद्यासु वागेव प्रकृतिः परा।।
(वाक् रूपी शक्ति के भेदों में विवर्त के कारण ही सृष्टि के विभिन्न आकार दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए सब शास्त्रों में वाक् को ही परा प्रकृति कहा गया है।)*
जहाँ एक ओर हम वैखरी के माध्यम से अपने समाज से जुड़े हुए हैं वहीं परा के द्वारा हमारा संबंध संपूर्ण सृष्टि और परमात्मा से है। भाषा केवल वही नहीं है जिसके माध्यम से हम अपने श्रोता तक अपनी बात पहुँचाते हैं या जिसके माध्यम में हम चिन्तन करते हैं। भाषा वह भी है जिसके माध्यम से सृष्टि की शक्ति-तरंगे प्रत्येक क्षण हमें आंदोलित करती रहती हैं। इस प्रकार भाषा-विज्ञान का संबंध न केवल शाब्दिक भाषा में प्रकट किये जाने वालों शास्त्रों ऱ दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि से है अपितु गणित, भौतिकी आदि उन सभी विद्याओं से भी है जो सृष्टि के रहस्य के मूल में जाने का प्रयास करती हैं। क्योंकि मानवीय मस्तिष्क द्वारा विकसित कोई भी शास्त्र मानवीय मस्तिष्क की सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता, और क्योंकि भाषा की विभिन्न अवस्थाओं में मानवीय मस्तिष्क की निम्नतम से उच्चतम क्षमता परिलक्षित होती है, इसलिए मानव-मस्तिष्क के द्वारा संपूर्ण सृष्टि के रहस्य को उद्घाटित करने में भी भाषा के अध्ययन का अन्यतम योगदान है।
वाक् और ब्रह्मांड
आइए वाक् की संपूर्ण प्रक्रिया को एक रूपक के माध्यम से समझने की कोशिश करें।
हमारे घर के बाहर वर्षा हो रही है और हम वर्षा की प्रक्रिया को उसके पूरे रूप में समझने का प्रयास करना चाहते हैं। क्योंकि हम वर्षा के घिरे हुए हैं इसलिए वर्षा के मूल को जानने के लिए हमें उसके ऊपर जाना होगा। इसके लिए हम एक बड़े गैस के गुब्बारे में बैठकर ऊपर की और जाना प्रारंभ करते हैं। हमारे निम्नलिखित अवस्थाओं में से गुजरने की संभावना है—
एक. सबसे पहले हम वर्षा की धाराओं के बीच में से गुजरेंगे जिनकी एक निश्चित दिशा, गति और मात्रा है। हम कह सकते हैं कि वर्षा की कौन-सी धारा कब कहाँ पर गिरी, कितनी देर वहाँ पड़ती रही और कब समाप्त हुई। हम विडियो कैमरे से इस प्रक्रिया की फ़िल्म आसानी से बना सकते हैं और फिर बाद में कभी भी उस प्रक्रिया का विश्लेषण कर सकते हैं। भाषा से इसकी तुलना करें तो यह वाक् की वैखरी अवस्था होगी जहाँ हम मनुष्य के मुख से बाहर आनेवाली भाषा के शब्दों को आसानी से रिकार्ड कर कह सकते हैं कि कब कौन क्या बोला, और कितनी देर किस प्रकार बोला। यह सर्वथा सार्वजनिक प्रक्रिया है। विडियोफ़िल्म बनाने के बाद हम कभी भी भाषा की उस प्रक्रिया का विश्लेषण कर सकते हैं।
दो. गुब्बारे में कुछ और ऊपर चलते जाने के बाद हम अपने आपको बादलों के बीच पाएँगे जहाँ वर्षा की धाराएँ समाप्त हो गई हैं। यदि अब हम विडियोफ़िल्म बनाना चाहें तो उसमें वर्षा जैसी स्पष्टता नहीं होगी क्योंकि बादलों का आकार निश्चित न होकर प्रतिक्षण बदलता रहता है। फिर भी हम अपने चारों ओर बादलों को देख सकते हैं और उनकी नमी को आसानी से अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं वर्षा और बादलों का पानी एक ही है, वर्षा में वह मूर्त रूप ले लेता है जबकि बादलों में वह केवल अनुभव किया जा सकता है। बादलों की अवस्था से तुलना करने पर हम देख सकते हैं कि यह भाषा की मध्यमा अवस्था है। जैसे वर्षा और बादलों का पानी एक ही है उसी प्रकार वेखरी और मध्यमा की शब्दावली और व्याकरण एक ही रहता है। पर हम मध्यमा भाषा या चिन्तन की भाषा को बाहर से नहीं देख सकते, न उसे रिकार्ड कर बाद में तय कर सकते हैं कि किसी ने अपने मन में कब किस भाषा में क्या सोचा। चिन्तन की भाषा उच्चरित भाषा से समानता रखते हुए भी उससे एक चरण अंदर चली गई है।
तीन. गुब्बारे में बैठे हुऐ हम लोग यदि ऊपर की ओर चलते जाएँ तो हम अपने आपको एक ऐसी ऊँचाई पर पाएँगे जहाँ आँखों को दिख सकनेवाले बादल समाप्त हो गए हैं पर हम अभी भी हवा में हलकी नमी अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं यद्यपि बादल हमें दिखाई नहीं दे रहे पर हमारे चारों ओर विद्यमान नमी ही कुछ और ठंडी और सघन हो जाने पर बादलों का रूप ले लेगी। भाषा से तुलना करने पर यह वाक् की पश्यन्ती अवस्था होगी जहाँ ध्यान की अवस्था में व्यक्ति कभी भाषातीत चेतना में रहता है तो कभी कुछ शब्दों को अपने अंदर उठते हुए पाता है। यह व्यक्ति के एक साथ भाषामय और भाषातीत होने की स्थिति है वैसे ही जैसे बादलों के ऊपर की अवस्था में पानी है भी और नहीं भी।
चार. यदि हम साहस कर गुब्बारे में और ऊपर जाएँ तो हम पाएँगे कि हमारे आसपास की की नमी भी समाप्त हो गई हैं। अब चारों ओर आकाश ही आकाश है जहाँ सूर्य चमक रहा है। पर विचार करने पर हम आसानी से जान सकते हैं अंतरिक्ष की उस ऊष्मा में ही वर्षा का आधार है। सूर्य के ताप से समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों का रूप लेता है और फिर बादलों से वर्षा होती है। इस प्रकार वर्षा का प्रारंभ वहाँ से होता है जहाँ बरसनेवाले पानी का अंश भी दिखाई नहीं देता। पर यदि सबसे ऊपर का वह स्थान न हो तो वर्षा नहीं हो सकती। इसी प्रकार हमारी भाषा का प्रारंभ वहाँ से होता है जहाँ शब्द अपनी पहचान खोकर एक चैतन्य में लीन हो जाते हैं। सामान्य मनुष्य के लिए यह समझना कठिन है कि उसके मन में उठनेवाली भाषा का स्रोत उसके परे की किसी सत्ता में है वैसे ही जैसे कि एक छोटे बच्चे के लिए यह समझना कठिन है कि उसके घर के बाहर होनेवाली वर्षा का स्रोत उस सूर्य में है जहाँ पानी नाम की कोई चीज़ नहीं है।
वह चैतन्य जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं, परमात्मा का ही रूप है। हम अपने अंदर आसानी से देख सकते हैं कि हमारे अंदर शब्दों के साथ बिंब या रूप भी जगते हैं। इन्ही शब्दों और बिंबों से हमारी दुनिया बनी है। हम अपने चारों ओर के संसार में अलग-अलग रूप देखकर उन्हें अलग-अलग नाम देते हैं जिससे हमें लगता है कि संसार में अनेक पदार्थ और अनेक प्राणी हैं। आधुनिक विज्ञान हमें बताता है संसार के सभी विभिन्न पदार्थ एक ही ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं। वही एक ऊर्जा विभिन्न पदार्थों के रूप में प्रकट हो रही है। वेद के अनुसार सभी प्राणियों में एक ही चैतन्य विद्यमान है, वही अपने आपको उनकी सभी गतिविधियों में प्रकट कर रहा है। हम नाम-रूप के भेद से ऊपर उठकर इस सत्य को प्रत्यक्ष अपने अंदर देख सकते हैं। भारतीय परंपरा में संपूर्ण विश्व ही नाम-रूप या शब्दों और बिंबों का खेल है। और यह खेल हमने नहीं रचा। हमसे ऊपर की कोई सत्ता यह लीला कर रही है और उस लीला में हमारा जन्म होता है और उसी लीला के अनुसार हम अपना जीवन जीते हैं। परमात्मा की वह लीला हमारे अंदर मुख्य रूप से भाषा के रूप में प्रकट होती है।
वैदिक दृष्टि के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रतिक्षण ब्रह्म या परमात्मा से आता है। हमें परमात्मा को जानने के लिए कुछ नहीं करना, केवल अपने मन को इतना शांत करना है उसमें कोई शब्द उत्पन्न न हों। इस खोज के आधार पर ही भारत में योग-आधारित साधना की परंपरा का विकास हुआ। यह सच है कि साधना की विभिन्न प्रणालियों को लेकर अनेक मत-संप्रदाय बने पर उस सबके बावज़ूद वैदिक सत्य सदा भारत में प्रकट होता रहा है और बार-बार मनुष्यों को आंतरिक शांति पाने का, परिवार और समाज में सामंजस्य लाने का, और जीवन और जगत् के बारे में अतिम सत्य को जानने का मार्ग दिखाता रहा है। यदि यह संदेश इतना चिरस्थायी रहा है तो उसका कारण यह है कि इसे किसी पुस्तक या व्यक्ति पर आधारित नहीं बनाया गया। भले ही वाक् की चार अवस्थाओं का निर्देश ऋग्वेद में किया गया हो पर वाक् के सत्य को जानने के लिए वेदों को मानने की ज़रूरत नहीं है। वाक् प्रत्येक मनुष्य के अंदर प्रस्फुटित हो रही है और आंतरिक साधना में रुचि रखनेवाला कोई भी व्यक्ति भाषा की गहराई में जाकर उस सत्य की खोज कर सकने के लिए स्वतंत्र है।
भारत की संस्कृति के विकास-काल में प्रारंभ हुई सत्य के अन्वेषण की यह परंपरा अभी भी चल रही है। पिछले सौ-एक वर्षों में ही विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्री अरविन्द, महात्मा गांधी, जे. कृष्णमूर्ति जैसे विचारक हमारा ध्यान बार-बार इस बात पर दिलाते रहे हैं कि मनुष्य का सत्य उसके अंदर है, और संसार में तभी शांति और सामंजस्य आ सकेगा जब मनुष्य शब्दों के विवादों से ऊपर उठकर अपने अदर विद्यमान शांति और प्रकाश के स्रोत को पहचानेगा। सर्वथा वैज्ञानिक दृष्टि से जगत् का विश्लेषण करने वाले विद्वान भी मानते हैं कि जिस जगत् को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं और जिसे हम समझने की प्रक्रिया कहते हैं वह सभी एक समेकित सत्य का अंग है। आज की क्वांटम मैकेनिक्स की भौतिकी में सत्य की खोज करनेवाले मन को उस जगत् में अविभाज्य रूप से संयुक्त माना जाता है जिसका वह अध्ययन कर रहा है। पिछले अंक में हमने भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्राप्त एर्विन श्रडंगर के विश्व चैतन्य को संबंध में विचार देखे थे। इस अंक में आप अन्यत्र उन्हीं के समान वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि रखनेवाले ब्रिटिश एस्ट्रोफ़िज़सिस्ट सर आर्थर एडिंगटन को कहते हुए देखेंगे कि विश्व की अंतिम सत्ता चैतन्यस्वरूप है। ऋग्वेद के अनुसार वही चैतन्य हम सभी की भाषा में परिलक्षित हो रहा है। इसलिये वैज्ञानिक दृष्टि से भी विश्व के अंतिम सत्य को जानने के लिए हमें अपने अंदर विद्यमान भाषा के अंतिन सत्य को जानना है।


· भारतीय दर्शन में दो प्रकार के परिवर्तन माने गए हैं ऱ एक विकार और दूसरा विवर्त। विकार वह परिवर्तन है जिसके होने पर परिवर्तित वस्तु को फिर पहली अवस्था में नहीं लाया जा सकता। दूध का दही बन जाना विकार है। हम दही को दुबारा दूध में नहीं बदल सकते। विवर्त वह परिवर्तन है जो केवल प्रतीत होता है। उसमें परिवर्तित वस्तु का मूल रूप विद्यमान रहता है। धागों का बुने जाकर कपड़े में बदलना विवर्त है। कपड़े में से हम धागे फिर अलग कर सकते हैं। सोने का कंगन सोने का विवर्त है। हम कंगन को पिघलाकर फिर सोना प्राप्त कर सकते हैं। भर्तृहरि के अनुसार, और वेदान्त की सामान्य मान्यता के अनुसार, यह संसार परमात्मा का विवर्त है। हम मन को शांत कर नाम-रूप के पीछे विद्यमान सनातन ब्रह्म को कभी भी देख सकते हैं। संसार को इसीलिए माया कहा जाता है क्योंकि इस परिवर्तनशील जगत् के रूप में सदा अपरिवर्तनशील ब्रह्म ही आपने आप को प्रकट कर रहा है। भर्तृहरि के अनुसार इस विवर्त के मूल में हमारी भाषा की प्रक्रिया काम कर रही है।

आर्यसमाज को बदलना होगा।


अनिल विद्यालंकार

सभी धर्मों को पुनर्चिंतन की आवश्यकता है। आज के वैज्ञानिक विचारों के युग में केवल विश्वासों, मान्यताओं और सिद्धांतो के सहारे कोई धर्म जीवित नहीं रह सकता। संसार के सभी धर्मों के प्रति उनके अनुयायियों की रुचि घट रही है। आर्यसमाज भी इसका अपवाद नहीं है। आज आर्यसमाज के सत्संगों में युवा लोगों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। स्पष्ट ही उन्हें आर्यसमाज में अपने काम की कोई बात दिखाई नहीं देती। यदि धर्म का उद्देश्य जीवन का मार्गदर्शन करना है तो आर्यसमाज अपने इस उद्देश्य में बुरी तरह असफल हो रहा है।
आर्यसमाज की स्थापना को 125 वर्ष हो चुके हैं। बीसवीं शताब्दी में भारत में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांति लाने में आर्यसमाज का सबसे अधिक योगदान था। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना भारत के ही नहीं संसार के उपकार के लिए की थी। आर्यसमाज के लिए निर्धारित नियमों के छठे नियम में उन्होंने कहा, ‘‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।”देखा जाए तो आर्यसमाज के लिए निर्धारित इन कार्यों के सभी पक्षों की हम लोग उपेक्षा करते रहे हैं। शारीरिक पक्ष को ही लिया जाए तो शायद ही आर्यसमाज का केन्द्र ऐसा हो जहाँ योगासनों की शिक्षा नियमित रूप से दी जाती हो। पिछली कुछ दशाब्दियों से पूरे विश्व में योगासन सीखने-सिखाने के बारे में अभूतपूर्व उत्साह है। पर आर्यसमाज इस में कहीं नहीं है। जबकि आर्यसमाज को योग की शिक्षा में सबसे आगे होना चाहिए था।
आर्यसमाज के उद्देश्यों में वर्णित आत्मिक उद्धार के नाम पर आर्यसमाज में केवल शाब्दिक व्याख्यानों की परम्परा रही है। पर आत्मा का उद्धार शब्दों से नहीं होता। आत्मिक प्रगति के लिए ध्यान ही एक मात्र उपाय है। पूरे विश्व में योग के साथ-साथ ध्यान के बारे में भी रुचि बढ़ रही है। ध्यान की शिक्षा देने के लिए अनेक गुरुओं ने अपने अपने सम्प्रदाय स्थापित किए हैं जिनमें से कुछ अच्छा कार्य कर रहे हैं। पर आर्यसमाज इसमें कहीं नहीं है। आर्यसमाज का कोई सत्संग ऐसा नहीं होता जहाँ ध्यान का कार्यक्रम होता हो और न ही किसी आर्यसमाज में ध्यान की शिक्षा देने की व्यवस्था है।
यदि सामाजिक उन्नति को लें, तो निस्संदेह आर्यसमाज ने सामाजिक जागृति लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बाल-विवाह का रोकना, कन्याओं की शिक्षा और अंतर्जातीय विवाह आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ आर्यसमाज अग्रणी रहा है, पर जाति-व्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित बनाने में आर्य समाज बुरी तरह असफल रहा है। आज की राजनीति जन्म-गत जाति से बुरी तरह प्रभावित है और हिन्दू समाज खंडों, उप-खंडों में बँटता जा रहा है, पर आर्य समाज इस बारे में सर्वथा मौन है।
आर्यसमाज को बदलना होगामहर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में कहा “वेद का पढ़ना-पढ़ाना सब आर्यों का परम धर्म है।”पर शायद ही कोई आर्यसमाज ऐसा हो जहाँ वेदों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हो। वेदों के अध्ययन के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत की शिक्षा के लिए भी आर्यसमाज कुछ नहीं कर रहा।
आर्यसमाज के चौथे नियम में महर्षि दयानन्द ने कहा “सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वथा उद्यत रहना चाहिए।” महर्षि दयानन्द नहीं चाहते थे कि लोग उनकी बातों को अन्धभक्ति के साथ स्वीकार करें। इसलिए उन्होंने मनुष्य की तर्कक्षमता पर बहुत अधिक बल दिया। पर आज हम महर्षि दयानन्द के शिष्य नहीं, तोते बनकर रह गए। हम उनके शब्दों को बहुत बार बिना विचार किए दोहराते रहते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि महर्षि दयानन्द ने अपने विचारों को “स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश”(मैं क्या मानता हूँ और क्या नहीं मानता) के रूप में ही सामने रखा था। वे जिन बातों को मानते थे उन्हें उन्होंने स्पष्टतः और साहस के साथ सामने रखा। पर उन्होंने यह दावा कभी नहीं किया जो वे कह रहे हैं वही अन्तिम सत्य है, अन्यथा वे आर्यसमाज के नियमों में यह कभी नहीं कहते कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। वे आसानी से कह सकते थे कि जो वे कह रहे हैं वही सत्य है और सभी लोगों को उसे ही मानना चाहिए।
हमें महर्षि दयानन्द से प्रेरणा लेकर अपनी सभी मान्यताओं पर खुले दिमाग से विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि हम यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान की सभी बातें वेदों में विद्यमान हैं, तो हमें उन्हें प्रमाण और प्रयोगों के साथ विश्व के सामने रखना चाहिए। और यदि पिछले सवा सौ वर्षों में हम ऐसा करने में असफल रहे हैं तो हमें नम्रता के साथ अपने दृष्टिकोण पर पुनः विचार करना चाहिए।
आज का विज्ञान कहता है कि मनुष्य का विकास पशुपक्षियों के बाद हुआ है और इसके लिए वह अकाट्य प्रमाण भी देता है। विज्ञान की खोज के अनुसार यह तय है कि आज से बीस-तीस लाख वर्ष पूर्व मनुष्य पृथ्वी पर नहीं था, जबकि अनेक प्रकार के पशु-पक्षी यहाँ विद्यमान थे जिनमें से डाइनासारस आदि कुछ पशु लुप्त हो चुके हैं। अब या तो हम अकाट्य प्रमाणों के द्वारा सिद्ध करें कि मनुष्य सृष्टि के प्रारम्भ से इस पृथ्वी पर रहता आया है या फिर मनुष्य के सम्बन्ध में अपनी मान्यताओं में परिवर्तन के लिए तैयार हों।
महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में कहा, “जो सब सत्यविद्या और पदार्थविद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।” पर अगले ही नियम में महर्षि दयानन्द ने कहा, “वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है।”यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इस नियम में महर्षि दयानन्द पदार्थविद्या को नहीं गिना रहे हैं। यह ठीक है कि उन्होंने वेदों में विज्ञान होने के सम्बन्ध में कुछ संकेत किए हैं पर मैं नहीं समझता कि वे इस पर बहुत अधिक बल देना चाहते थे। हमें वेदों में पदार्थविज्ञान होने के संबंध में या तो अकाट्य प्रमाणों के द्वारा इस बात को पुष्ट कर संसार के सामने रखना चाहिए या फिर इस प्रश्न पर सदा के लिए विराम लगा देना चाहिए।
आर्यसमाज को बदलना होगादूसरी ओर यह बात बिल्कुल सच है कि सत्यविद्या का जो ज्ञान वेदों में है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। यह ज्ञान आत्मा और परमात्मा के ही बारे में नहीं है अपितु सृष्टि के अन्तिम रहस्य के बारे में भी है। वेद में अनेक ऐसे विषयों का ज्ञान है जो हमारे आधुनिक जीवन के लिए न केवल उपयोगी है अपितु सर्वथा आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर केवल भाषा से संबंधित ऋग्वेद के इस मंत्र को ही देखें--
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।।
(ऋग्वेद 1-164-45 )
(भाषा के नियमित चार चरण हैं। उन सभी चरणों को केवल विद्वान ब्राह्मण जानते हैं। इनमें से तीन चरण मनुष्य के हृदय की गुफा में छिपे हुए हैं। सभी मनुष्य केवल चौथे चरण की भाषा बोलते हैं।)
भाषा के बारे में यह बहुत ही गहरी दृष्टि है जो संसार में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। आइए इस पर संक्षेप में विचार करें।
भाषा की चौथी अवस्था उच्चरित भाषा की है जिसे सब सुनते-बोलते हैं और जिसके आधार पर समाज का व्यवहार चलता है। भाषा के इस चरण को “वैखरी” कहते हैं। वैखरी की अवस्था में मनुष्य जानबूझकर और सोचसमझकर अपने शब्द नहीं बोलता। अधिकतर भाषा उसके मुख से अपने आप निकलती है।
भाषा की तीसरी अवस्था मानसिक भाषा की है जो हर व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में विचारों के रूप में स्पन्दित होती है। चिन्तन की भाषा का यह रूप बाहर नहीं आता। पर सब लोग इसे अपने अन्दर अनुभव कर सकते हैं। भाषा के इस चरण को ‘‘मध्यमा’’ कहते हैं। इस मध्यमा के माध्यम में मनुष्य निरंतर कुछ न कुछ सोचता रहता है। पर अनियंत्रित चिन्तन से समस्याएँ सुलझने के बजाय उलझती जाती हैं। बहुत से मनुष्य अपने अनियंत्रित चिंतन से परेशान होकर चिंतन के ऊपर उठना चाहते हैं और उनकी प्रवृत्ति ध्यान की ओर होती है।
भाषा की दूसरी अवस्था ध्यान में प्रकट होती हैं जहाँ कभी मनुष्य के मन में शब्द उत्पन्न होते हैं और कभी वह शब्दातीत चेतना में रहता है। इस अवस्था पर आकर मनुष्य को भाषा के सच्चे स्वरूप का आभास मिलने लगता है। भाषा की इस अवस्था को “पश्यन्ती” कहते हैं।
आर्यसमाज को बदलना होगाभाषा की पहली अवस्था ‘‘परा’’ कहलाती है जो वास्तव में परमात्मा की ही एक शक्ति है। इस अवस्था पर जाकर साधक की चेतना परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है और वह अपने सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार करता है। यह जीवन का चरम लक्ष्य है।
ऋग्वेद के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रतिक्षण परमात्मा या ब्रह्म से आता है। मनुष्य को लगता है कि वह भाषा का प्रयोग कर रहा है, पर वास्तव में भाषा चाहे-अनचाहे उसके मन-मस्तिष्क में खुदबुदा रही होती है। इस प्रक्रिया में मनुष्य का वास्तव में जन्म होता है। मनुते इति मनुष्यऱ मनुष्य सोचता है, इसलिए वह मनुष्य है। पर मनुष्य को सदा सोचते रहने की लाचारी से ऊपर उठना है। वेद के अनुसार मनुष्य भाषा को नहीं बनाता, भाषा मनुष्य को बनाती है। यदि हम वेद में वर्णित ‘वाक्’ के रहस्य को ही समझ लें तो हमें स्वयं अपने विषय में, परमात्मा के विषय में और सृष्टि के विषय में सभी रहस्यों का ज्ञान हो जायेगा। इसके लिए गहरी आध्यात्मिक साधना की आवश्यकता है।
वैदिक काल के बाद साधना की जिस लंबी परंपरा का विकास हुआ उसका प्रमुख उद्देश्य मनुष्य को अपने मन की सीमाओं से ऊपर उठने में सहायता देना रहा है। पतंजलि ने योग की परिभाषा में ही कहा, योगः चित्तवृत्तिनिरोधः – मन की हलचल को रोकने का नाम योग है। मन की इस हलचल में भाषा भी आती है। सर्वथा शांत मन में अनावश्यक रूप से भाषा नहीं पैदा होती। शांत मन की उस अवस्था में ही मनुष्य को परमात्मा के दर्शन होते है। वेद के आधार पर परमात्मा की परिभाषा भी दी जा सकती है –भाषातीत चैतन्य परमात्मा है। परमात्मा की यह परिभाषा सैद्धांतिक कथनमात्र नहीं है, यह सर्वथा प्रयोगसाध्य है। जो भी व्यक्ति अपने मन को इतना शांत कर लेगा कि उसमें कोई अनावश्यक शब्द उत्पन्न न हो, उसे अवश्य ही परमात्मा मिल जाएगा। साथ ही यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि परमात्मा को पाने का और कोई उपाय नहीं है।
यदि हम परमात्मा की इस वेद-आधारित परिभाषा पर ही ध्यान दें तो न केवल हम अपने जीवन में सुख-शांति ला सकते हैं अपितु देश में और संसार में धर्म के नाम पर जो खूनखराबा हो रहा है उसे भी बंद करवाकर विश्वभर में शांति सुरक्षा और विकास के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
वेद में आधुनिक जीवन के लिए सर्वथा उपयोगी विचारों में से केवल एक के विषय में यहाँ संकेत किया गया है। वैदिक ऋषियों ने जीवन के विषय में जो गहरी दृष्टि दी उसे अपनाए बिना मनुष्यजाति का उद्धार नहीं हो सकता। इसीलिए उन ऋषियों ने ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’, अर्थात् हम हर मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाएँ, संदेश दिया था। आज आर्यसमाज को उस संदेश पर फिर से ध्य़ान देने की आवश्यकता है। इसके लिए सामूहिक जागरूकता लाकर संगठित प्रयास करना होगा।
आर्यसमाज को बदलना होगाएक और बात की ओर सभी प्रबुद्ध भारतीयों का, विशेषकर आर्यसमाजियों का ध्यान जाना चाहिए। संसारभर में मनुष्य के जीवन के सच्चे स्वरूप और उसके अनुसार जीवन जीने के सही मार्ग की तलाश जारी है। असंख्य लोग मानसिक शांति की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं। दूसरी ओर आज के उच्चतम वैज्ञानिक भी सृष्टि के अंतिम रहस्य को खोज नहीं पा रहे हैं। वेद कहता है कि सारा विश्व एक ही चैतन्य की अभिव्यक्ति है (पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ऱ यहाँ जो कुछ है, जो अब तक हुआ है और जो आगे होगा वह सब पुरुष ऱ चैतन्यऱ ही है। ऋग्वेद 10-90-2)। ऊपर से देखने पर यह वेदान्त का कथन प्रतीत होता है। पर यह वेद का वाक्य है, और इसे गहराई से समझने की आवश्यकता है। भौतिकी में नोबेल पुरस्कारप्राप्त एर्विन श्रडंगर ने इस कथन की पुष्टि की है। उनके अनुसार सारा भौतिक विश्व भी वास्तव में एक ही चैतन्य तत्त्व की अभिव्यक्ति है। चेतना का प्रश्न आज केवल शांति की खोज में भटकते लोगों के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, उच्चतम वैज्ञानिकों के लिए भी इसका महत्त्व है। पर चेतना का प्रश्न प्रायः ही धार्मिक प्रश्न मान लिया जाता है। अब धर्म और विज्ञान के समन्वय का मार्ग खोजने का समय आ गया है। यह कार्य केवल भारतीय चिन्तन के आधार पर ही संभव हो सकता है।
पर आज भारतीय चिन्तन भी अनेक खेमों में बँटा हुआ है जिनमें आर्यसमाज का खेमा भी एक है। आवश्यकता इस बात की है कि वेदों से लेकर अबतक चेतना के विषय में जो भी चिन्तन भारत में हुआ है उस पर सामूहिक और व्यवस्थित विचार हो। वैदिक धर्म मानने का धर्म न होकर जानने का धर्म है। स्वामी दयानन्द ने कहा था कि हमें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिए। उन्होंने कभी नया पंथ चलाने का दावा नहीं किया। पर आज आर्यसमाज एक दयानंदपंथ बनकर रह गया है। आर्यसमाजी विद्वान महर्षि दयानंद की बातों को प्रायः बिना समझे तोते की तरह दुहराते रहते हैं, परिणामतः आर्यसमाज में चिन्तन का अभाव होता जा रहा है और भारतीय जनता की रुचि आर्यसमाज में दिनों दिन घटती जा रही है।
आज आवश्यकता एक ‘विश्वधर्म’ की है जो संसार के सभी लोगों को स्वीकार्य हो और जो उनका का सही मार्गदर्शन कर सके। यह तय है कि संसार में इस समय विद्यमान कोई भी धर्म संसार के सभी लोगों का धर्म नहीं बन सकता। आर्यसमाज कितना ही प्रयास करले, संसार के सभी लोग कभी आर्यसमाजी बन जाएँगे इसकी संभावना नहीं के बराबर है। पर यदि हम समूचे भारतीय चिन्तन पर समग्रता से विचार करें तो हमें वह दृष्टि अवश्य मिल सकती है जिसकी संसार को आवश्यकता है। इसके लिए हमें भारत में विकसित सभी दर्शनों ऱ सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, और बौद्ध और जैन दर्शनों पर, अपने अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर, सामूहिक विचार करना होगा। साथ ही आज की नवीनतम वैज्ञानिक खोजों को पर भी विचार कर धर्म और विज्ञान के संबंध में एक समन्वित दृष्टि का विकास करना होगा जो विश्वभर में मान्य हो। आर्यसमाज इस दिशा में पहल कर सकता है।
आर्यसमाज को बदलना होगासौभाग्य से आज प्रत्येक आर्यसमाज के पास उसका अपना भवन है जहाँ अनेक प्रकार के उपयोगी कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। पर प्रायः आर्यसमाज मंदिरों का उपयोग प्रायः केवल रविवार के दिन दो घंटे के लिए होता है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक आर्यसमाज को एक शिक्षाकेन्द्र बनाया जाए जहाँ महर्षि दयानन्द के अनुसार शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए सार्थक प्रयास हो। इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं:
1. प्रत्येक आर्यसमाज को योग की शिक्षा का केन्द्र बनाया जाए जहाँ नियमित रूप से योग के सभी पक्षों की शिक्षा दी जाए।
2. ध्यान योग का अभिन्न अंग है। प्रत्येक आर्यसमाज में ध्यान की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए और ध्यान को आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग का अभिन्न अंन्न अंग है। प्रत्येक आर्य समाज में ध्यान की शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए और ध्यान को आर्य समाज के साप्ताहिक सत्ग बनाना चाहिए। वास्तव में ध्यान के बिना वेद के मंत्रों का अर्थ भी सही रूप से समझ में नहीं आ सकता। जो लोग केवल शब्द-विश्लेषण के आधार पर वेदों की व्याख्या करते हैं उनके चिन्तन में गहराई नहीं आ पाती। वेद स्वयं कहता है कि परमात्मा को जाने बिना मंत्रों को नहीं समझा जा सकता (यस्तन् न वेद किं ऋचा करिष्यति ऱ जो परमात्मा को नही जानता उसके लिए मंत्र क्या करेंगे? ऋग्वेद 1-164-39)
3. सामाजिक उन्नति के लिए प्रत्येक आर्यसमाज में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं पर खुली चर्चा होनी चाहिए। आजकल हिन्दुत्व शब्द भारतीय राजनीति के केन्द्र में आ गया है। आर्यसमाज का इस बारे में क्या दृष्टिकोण है? क्या जन्म से जाति मानने वाले लोग शिक्षित हिन्दू कहे जा सकते हैं? आजकल जाति के नाम पर जो घृणित राजनीति हो रही है उसके बारे में आर्यसमाज का क्या दृष्टिकोण है?
4. आर्यसमाज आज भी सामाजिक कार्य करता है पर वह अधिकतर दैवी विपदाओं के अवसर तक ही सीमित रहता है। कुछ आर्यसमाजों में निश्शुल्क औषधालय चलाने जैसे सामाजिक सेवा के कार्य किये जा रहे हैं जो प्रशंसनीय हैं। पर सभी आर्यसमाजों को सामाजिक सेवा को अपने कार्यक्रम का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। तभी महर्ष दयानंद का आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य पूरा होगा। यदि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य अपनी आय का औऱ अपने समय का एक प्रतिशत (सप्ताह में दो घंटे) सामाजिक कार्य के लिए दे तो आर्यसमाज की ओर से सामाजिक उत्थान के लिए बहुत काम किया जा सकता है।
5. प्रत्येक आर्यसमाज को एक जीवंत शिक्षा-केन्द्र बनाना चाहिए। कुछ आर्य समाजों के भवनों में विद्यालय चल रहे हैं पर वह एक रोटीन कार्य बन गया है। प्रत्येक आर्यसमाज में संस्कृत, कला, दस्तकारी, संगीत, स्वास्थ्य-विज्ञान आदि के सीखने की व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें समाज के सभी वर्गों के लोग भाग ले सकें। आर्यसमाज के अपने भवनों में इस प्रकार के कार्यक्रम चलाना कठिन नहीं है। वाई.एम.सी.ए. आदि संस्थाओं ने अपने इसी प्रकार के कार्यों से समाज में स्थान बना लिया है। आज प्रत्येक नगर और कस्बे में बड़ी संख्या में अवकाश-प्राप्त लोग हैं जो सामाजिक कार्य करना चाहते हैं पर उन्हें समझ नहीं आता कि वे क्या करें और कहाँ करें। आर्यसमाज उनकी सेवाओं से लाभ उठाकर सामाजिक जीवन में गति ला सकता है।
6.
आर्यसमाज को बदलना होगादेश में और संसार के अन्य देशों में धर्म के नाम पर होने वाले झगड़ों और खूनखराबे को कैसे रोका जा सकता हैय़ क्या मनुष्य जाति एक विश्वधर्म की ओर बढ़ सकती हैय़ यह ऐसा विषय है जिस पर आर्यसमाज ही खुला चिन्तन प्रारम्भ कर सकता है।
वर्तमान समय में सभी धर्मों को बदलना है, कुछ को कम कुछ को ज़्यादा। शायद आर्यसमाज को सबसे कम बदलना है, पर बदलना अवश्य है।
यदि हम आर्यसमाज के अन्दर बदलाव के लिए चिन्तन और प्रयास नहीं करते तो हम अपने आपको सही अर्थों में आर्यसमाजी नहीं कह सकते। ▀

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